Book Title: Man Shakti Swarup aur Sadhna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_2_001685.pdf

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Page 24
________________ 120 : श्रमण/अप्रैल-जून/1995 23. विशद विवेचना के लिए देखिए -- विशुद्धिमग्गो, भाग 2, पृ0 103-128 ( हिन्दी अनुवाद) गीता, 15/9 सद्दे-स्वे य गन्धे य, रसे-फासे तहेव य । पंचविहे कामगुण, निच्चसो परिवज्जए। - उत्तराध्ययन, 16/10 जाणंतो पस्संतो ईहापुध्वं ण होई केवलिणो। केवलिणाणी तम्हा तेण तुसोऽबन्धगो भणिदो।। परिणाम पुव्ववयणं जीवस्स य बंधकरणं होई। परिणामरहिय वयणं तम्हा णाणीस्स णहि बन्यो।। ईहापुव्वं वयणं जीवस्स य बंधकारणं होई। ईहारहियं वसणं तम्हा णाणीस्स ण हि बन्धो।। ठाणणिसेज्जविहारा ईहापुव्वं ण होई केवलिणो। तम्हा ण होई बन्धो साकट मोहसणीयस्स।। - नियमसार, 171, 172, 173, 174 टिप्पणी -- ईहा शब्द विमर्शात्मक संकल्प की अपेक्षा -- विमर्शरहित "वासना" के अधिक निकट है। गणधरवाद -- वायुभूति से चर्चा परांचि खानि व्यतृणत्स्वयंभू स्तस्मात्पराङ्पश्यति नान्तरात्मन् -- कठ0 2/1/1 सव्वे सुहसाया दुक्खपडिकूला -- आचारांग इन्द्रिय मनोनुकूलायाम्प्रवृत्तो -- अभिधानराजेन्द्र, खण्ड 2, पृ0 575 लाभस्वार्थस्याभिलाषातिरेके --- वही, पृ0 575 रागस्सहेउ समणुन्नमाहु दोसस्संहेडं अमणुन्नमाहु -- उत्तरा0 32/23 तुलना कीजिये : राग की उत्पत्ति के दो हेतु है --- 1. शुभ ( अनुकूल ) करके देखना, 2. अनुचित विचार । वेष की उत्पत्ति के दो हेतु हैं -- 1. प्रतिकूल करके देखना तथा 2. अनुचित विचार। - अंगुत्तर निकाय, दूसरा निपात, 11/6-7 25. 26. 27. 28. 30. तओ से जायंति पओयणाई निमज्जिउं मोहमहण्णवम्मि। सुहेसिणो दुक्खविणोयणट्ठा तप्पच्चयं उज्जमए य रागी।। कोहं घ माणं च तहेव मायं लोहं दुर्गच्छं अरई रइंच। हासं भयं योग पुमित्यिव्यं नपुंसवेयं विविहे य भावे।। आवज्जई एयमणेगस्वे एवंविहे कामगुणेसु सत्तो। अन्ने य एयप्पभवे क्सेिसे कारुण्णदीणे हिरिमं वइस्से।। -- उत्तराध्ययन, 32/105, 102, 103 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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