Book Title: Man Shakti Swarup aur Sadhna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_2_001685.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 14
________________ 110: श्रमण/अप्रैल-जून/1995 उत्पन्न करता है तथा पीड़ित करता है।38 रूप में मूञ्छित जीव उन पदार्थों के उत्पादन, रक्षण एवं व्यय में और वियोग की चिन्ता में लगा रहता है। उसे सुख कहाँ है ? वह संयोग काल में भी अतृप्त रहता है।39 रूप में आसक्त मनुष्य को थोड़ा भी सुख नहीं होता, जिस वस्तु की प्राप्ति में उसने दुःख उठाया, उसके उपयोग के समय भी वह दुःख पाता है।40 श्रोत्रेन्द्रिय शब्द की ग्राहक और शब्द श्रोत का ग्राह्य है। प्रिय शब्द राग का और अप्रिय शब्द देखे का कारण है। जिस प्रकार राग में गद्ध बना हुआ मग मुग्ध होकर शब्द में सन्तोषित न होता हुआ मृत्यु पा लेता है। उसी प्रकार शब्दों के विषय में अत्यन्त मुछित होने वाला जीव अकाल में ही नष्ट हो जाता है।42 शब्द की आसक्ति में पड़ा हुआ भारी कर्मी जीव, अज्ञानी होकर त्रस और स्थावर जीवों की अनेक प्रकार से हिंसा करता है, परिताप उत्पन्न करता है और पीड़ा देता है।43 वह मनोहर शब्द वाले पदार्थों की प्राप्ति, रक्षण एवं व्यय में तथा वियोग की चिंता में लगा रहता है, उनके संभोग काल के समय में भी अतृप्त ही बना रहता है, फिर उसे सुख कहाँ है।4 तृष्णावश वह जीव चोरी, झूठ और कपट की वृद्धि करता हुआ अतृप्त ही रहता है, दुःख से नहीं छूट सकता।45 नासिका गन्ध को ग्रहण करती है और गंध नासिका का ग्राह्य है। सुगन्ध राग का कारण है और दुर्गन्ध द्वेष का कारण है। जिस प्रकार सुगन्ध में मूर्छित हुआ सर्प बाँबी से बाहर निकलकर मारा जाता है, उसी प्रकार गन्ध में अत्यन्त आसक्त जीव अकाल में ही मृत्यु पा लेता है। सुगन्ध के वशीभूत होकर बालजीव अनेक प्रकार से त्रस और स्थावर जीवों का घात करता है, उन्हें दुःख देता है।48 वह जीव सुगन्धित पदार्थों की प्राप्ति, रक्षण, व्यय तथा वियोग की चिन्ता में ही लगा रहता है, अतः वह उनके भोगकाल में भी अतृप्त ही रहता है, फिर उसे सुख कहाँ है। जिह्वा रस को ग्रहण करती है और रस जिह्वा का ग्राह्य है। मनपसन्द रस राग का कारण और मन के प्रतिकूल रस देव का कारण कहा गया है। जिस प्रकार मांस खाने के लालच में फंसा हुआ मच्छ काँटे में फंसकर मारा जाता है, उसी प्रकार रसों में अत्यन्त गृद्ध जीव अकाल में मृत्यु का ग्रास बन जाता है। उसे कुछ भी सुख नहीं होता, वह रसभोग के समय भी दुःख और क्लेश ही पाता है। 2 इसी प्रकार अमनोज्ञ रसों में देश करने वाला जीव भी दुःख परम्परा बढ़ाता है और कलुषित मन से कर्मों का उपार्जन करके उसके दुःखद फल को भोगता है।53 शरीर स्पर्श को ग्रहण करता है और स्पर्श शरीर का ग्राह्य है। सुखद स्पर्श राग का तथा दुःखद स्पर्श देव का कारण है।54 जो जीव सुखद स्पर्शों में अति आसक्त होता है वह जंगल के तालाब के ठण्डे पानी में पड़े हुए मकर द्वारा ग्रसित भैसे की तरह अकाल में ही मृत्यु पाता है। स्पर्श की आशा में पड़ा हुआ वह गुरुकर्मी जीव चराचर जीवों की अनेक प्रकार से हिंसा करता है, उन्हें दुःख देता है। सुखद स्पर्शों में मूञ्छित हुआ प्राणी उन वस्तुओं की प्राप्ति, रक्षण, व्यय एवं वियोग की चिन्ता में ही घुला करता है। भोग के समय भी वह तप्त नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26