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मन -- शक्ति, स्वरुप और साधना : एक विश्लेषण : 109
बाधा उत्पन्न होती है तो क्रोध (घृणा, द्वेष ) उत्पन्न हो जाता है। क्रोध में मूढता या अविवेक, अविवेक से स्मृतिनाश और स्मृतिनाश से बुद्धि विनष्ट हो जाती है और बुद्धि के विनष्ट होने से व्यक्ति विनाश की ओर चला जाता है।
___ इस प्रकार हम देखते हैं कि जब इन्द्रियों का अनुकूल या सुखद विषयों से सम्पर्क होता है तो उन विषयों में आसक्ति तथा राग के भाव जागत होते है और जब इन्द्रियों का प्रतिकूल या दुःखद विषयों से संयोग होता है अथवा अनुकूल विषयों की प्राप्ति में कोई बाधा आती है तो घणा या विद्वेष के भाव जागृत होते हैं। इस प्रकार सुख-दुःख का प्रेरक नियम एक दूसरे स्प में बदल जाता है। जहाँ सुख का स्थान राग या आसक्ति का भाव ले लेता है और दुःख का स्थान घृणा या देष का भाव ले लेता है। ये राग-द्वेष की वृत्तियाँ ही व्यक्ति के नैतिक अध: पतन एवं जन्म-मरण की परम्परा का कारण होती है। सभी भारतीय दर्शन इसे स्वीकार करते हैं। जैन विचारक कहते है, "राग और देष ये दोनों ही कर्म-परम्परा के बीज है और यही कर्म-परम्परा के कारण हैं।32 सभी भारतीय आधार-दर्शन इसे स्वीकार करते हैं। गीता में कहा गया है, "हे अर्जुन ! इच्छा (राग) और द्वेष के न्द्र में मोह से आवत होकर प्राणी इस संसार में परिभ्रमण करते रहते है।"35 तथागत बुद्ध कहते है,"जिसने राग-द्वेष और मोह को छोड़ दिया है वही फिर माता के गर्भ में नहीं पड़ता।"34
इस समग्र विवेचना को हम संक्षेप में इस प्रकार रख सकते हैं कि विविध इन्द्रियों एवं मन के बरा उनके विषयों के ग्रहण की चाह में वासना के प्रत्यय का निर्माण होता है। वासना का प्रत्यय पुनः अपने विधानात्मक एवं निषेधात्मक पक्षों के रूप में सुख और दुःख की भावनाओं को जन्म देता है। यही सुख और दुःख की भावनाएँ राग और देव की वृत्तियों का कारण बन जाती है। यही राग-द्वेष की वृत्तियाँ क्रोध, मान, माया, लोभादि विविध प्रकार के अनैतिक व्यापार का कारण होती है। लेकिन इन सबके मूल में तो ऐन्द्रिक एवं मनोजन्य व्यापार ही है और इसलिये साधारण रूप से यह माना गया कि नैतिक आचरण एवं नैतिक विकास के लिए इन्द्रिय और मन की वृत्तियों का निरोध कर दिया जाए। आचार्य हेमचन्द्र कहते है कि इन्द्रियों पर काबू किये बिना रागदेव एवं कषायों पर विजय पाना सम्भव नहीं होता है। अतः अब इस सम्बन्ध में विचार करना इष्ट होगा कि क्या इन्द्रिय और मन के व्यापारों का निरोध सम्भव है और यदि निरोध सम्भव है तो उसका वास्तविक रूप क्या है ? इन्द्रिय निरोध : सम्भावना और सत्य
इन्द्रियों के विषय अपनी पूर्ति के प्रयास में किस प्रकार नैतिक पतन की ओर ले जाते है इसका सजीव चित्रण उत्तराध्ययनसूत्र के 32वें अध्ययन में मिलता है। वहाँ कहा गया है कि-- रूप को ग्रहण करने वाली चक्षु इन्द्रिय है और स्प चक्षु इन्द्रिय से ग्रहण होने योग्य है। प्रिय स्प, राग का और अप्रिय स्प द्वेष का कारण है।36
जिस प्रकार दृष्टि के राग में आतुर होकर पतंगा मृत्यु पाता है, उसी प्रकार रूप में अत्यन्त आसक्त होकर जीव अकाल में ही मृत्यु पाते हैं। रुप की आशा में पड़ा हुआ गुरुकर्मी, अज्ञानी जीव, बस और स्थावर जीवों की अनेक प्रकार से हिंसा करता है। परिताप
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