Book Title: Man Shakti Swarup aur Sadhna Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_2_001685.pdf View full book textPage 2
________________ 98 : श्रमण/अप्रैल-जून/1995 कारण होकर प्राणियों के बन्धन का हेतु है। इसी तथ्य को आचार्य हेमचन्द्र ने निम्न स्प में प्रस्तुत किया है। वे कहते हैं, "मन का निरोध हो जाने पर कर्म (बन्धन ) में पूरी तरह रुक जाते हैं क्योंकि कर्म का आसव मन के अधीन है लेकिन जो पुरुष मन का निरोध नहीं करता है उसके कर्मों ( बन्धन ) की अभिवृद्धि होती रहती है।"2 बौद्धदर्शन में चित्त, विज्ञप्ति आदि मन के पर्यायवाची शब्द है। तथागत बुद्ध का कथन है "सभी प्रवृत्तियों का आरम्भ मन से होता है, मन की उनमें प्रधानता है वे प्रवृत्तियों मनोमय है। जो सदोष मन से आचरण करता है, भाषण करता है उसका दुःख वैसे ही अनुगमन करता है जैसे -- रथ का पहिया घोड़े के पैरों का अनुगमन करता है। किन्तु जो स्वच्छ (शुद्ध) मन से भाषण एवं आचरण करता है उसका सुख वैसे ही अनुगमन करता है जैसे साथ नहीं छोड़ने वाली छाया।"4 कुमार्ग पर लगा हुआ चित्त सर्वाधिक अहितकारी और सन्मार्ग पर लगा हुआ चित्त सर्वाधिक हितकारी है। अतः जो इसका संयम करेंगे वे मार के बन्धन से मुक्त हो जाएँगे। लंकावतारसूत्र में कहा गया है, "चित्त की ही प्रवृत्ति होती है और चित्त की ही विमुक्ति होती है।" वेदान्त परम्परा में भी सर्वत्र यही दृष्टिकोण मिलता है कि जीवात्मा के बन्धन और मुक्ति का कारण मन ही है। ब्रह्मबिन्दु उपनिषद् में कहा गया है कि "मनुष्य के बन्धन और मुक्ति का कारण मन ही है। उसके विषयासक्त होने पर बन्धन है और उसका निर्विषय होना ही मुक्ति है।" गीता में कहा गया है -- "इन्द्रियाँ मन और बुद्धि ही इस वासना के वास स्थान कहे गये हैं और यह वासना इनके द्वारा ही ज्ञान को आवृत कर समाप्त हो गई है ऐसे ब्रह्मभूत योगी को ही उत्तम आनन्द प्राप्त होता है।"10 आचार्य शंकर भी विवेक चूडामणि में लिखते है कि मन से ही बन्धन की कल्पना होती है और उसी से मोक्ष की। मन ही देहादि विषयों में राग को बांधता है और फिर विषवत् विषयों में विरसता उत्पन्न कर मुक्त कर देता है। इसीलिए इस जीव के बन्धन और मुक्ति के विधान में मन ही कारण है। रजोगुण से मलिन हुआ मन बन्धन का हेतु होता है तथा रज-तम से रहित शुद्ध सात्विक होने पर मोक्ष का कारण होता है।"11 यद्यपि उपरोक्त प्रमाण यह तो बता देते है कि मन बन्धन और मुक्ति का प्रबलतम एकमात्र कारण है। लेकिन फिर भी यह प्रश्न अभी अनुत्तरित ही रह जाता है कि मन ही को क्यों बन्धन और मुक्ति का कारण माना गया है ? जैन साधना में मन ही बन्धन और मुक्ति का कारण क्यों ? यदि हम इस प्रश्न का उत्तर जैन तत्त्वज्ञान की दृष्टि से खोजने का प्रयास करें, तो हमें ज्ञात होता है कि जैन तत्त्वमीमांसा में जड़ और चेतन ये दो मूल तत्त्व है। शेष आसव, संवर, बन्ध, मोक्ष और निर्जरा तो इन दो मूल तत्त्वों के सम्बन्ध की विभिन्न अवस्थाएँ हैं। शुद्ध आत्मा तो बन्धन का कारण नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें मानसिक, वाचिक और कायिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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