Book Title: Main to tere Pas Me
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 45
________________ साधना के लिए चाहिए ऊर्जा । ऊर्जा सामर्थ्य की ही मुखछवि है । शरीर या इन्द्रियों की ऊर्जा जर्जरता की ओर यात्राशील है। इसे नव्य-भाव अर्थवत्ता के साथ नियोजित एवं प्रयुक्त कर लेने में इसकी महत् उपादेयता है दीपक बुझने से पहले उसकी ज्योति का उपयोग करना ही प्रज्ञा-कौशल है। मृत्यु के बाद केसे करेंगे मृत्युंजयता ! साधक आन्तरिक शत्रुओं को परास्त कर विजय का स्वर्ण पदक प्राप्त करता है। यह आत्म-विजय सत्यतः लोक-विजय है। सच्ची वीरता अन्य को नहीं अनन्य अपने आपको जीतने में हैं || देहगत और आत्मगत शत्रुओं पर विजयश्री प्राप्त करने वाला ही जिन है, आत्म-शास्ता है,) लोक-विजेता है। इस मंच पर डग भरने के बाद किसी और को पाना और जीतना अवशेष नहीं रहता। धान पकने के बाद बारिस की चाह कहाँ से रहेगी। उसकी सारी कामनाएँ तो निष्काम/निश्चिन्त आश्वस्त चित्त में सुप्त/अचेतन हो जाती है । उसकी गगन-चूमी ऊर्जा बुद्धि-बोध से देवाचित होकर मात्र करती है महापग का प्रवर्तन, सद्विचार की महावीथि पर सदाचार का सुमन-सर्जन। । [ ४४ ] Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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