Book Title: Main to tere Pas Me
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 50
________________ शिष्य सत् के प्रति कुतुहल भरी उड़ान है। राह से अनजान होने के कारण उसका एक पाँव तो लकवे की हवा मारा है। बिन सद्गुरु शिष्य की यात्रा मंजिल की काई-जमी सीढ़ियों को एक पाँव से पार करना है । सद्गुरु अगर बैसाखी बनकर शिष्य को मजबूत सहारा दे दे, तो एक पाँव से भी आगे बढ़ना दिक्कत-तलब कहाँ ! शिष्य एक भूमिका है। उसमें कमियाँ और कमजोरियाँ भी मुमकिन हैं। वे जादू-मंतर की तरह गायब होने वाली नहीं हैं। सद्गुरु को ही उनका सफाया करना पड़ता है और उसे ही अन्तरनिहित असलियत से सीधा परिचय कराना पड़ता है। सद्गुरु के चरणों में स्वयं को न्यौछावर करने के बाद शिष्य सद्गुरु से आजाद अंग नहीं है । सद्गुरु की मौजूदगी ही शिष्य के लिए अन्तर बोध का पैगाम है । उसकी उपस्थिति में भी शिष्य का चिराग न जले, तो सद्गुरु उत्तर नहीं, शिष्य के मुँह के सामने खड़ा प्रश्न-चिह्न है। सत् से साक्षात्कार करवाकर शिष्य को गुरु बनाना ही सद्गुरु की जिम्मेदारी है। सद्गुरु के पास रहकर शिष्य भी सद्गुरु बन जाये, तो इसमें अचरज किस बात का। समय की सीढ़ी पाकर सेवक भी एक दिन सेठ बन सकता है । सद्गुरु समाधि का संवाहक है। वहाँ भटकाव नहीं, मात्र समाधान होते हैं। जहाँ सारी समस्याओं का समाधान होता है, वही समाधि है । ( शेष तो जीवन के नाम पर मुर्दो की बस्ती है ) । [ ४६ ] Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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