Book Title: Main to tere Pas Me
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 48
________________ ... विश्व मानव-मन के द्वन्द्वों एवं आत्म स्वीकृतियों का दर्पण है ( साधक आत्मपूर्णता के लिए समर्पित जीवन का एक नाम है)। सम्भव है मन की हार और जीत के बीच वह झुल जाये। साधना के राजमार्ग पर बढ़े पाँव शिथिल या स्खलित न हो जाय, इसके लिए हर पहर सचेत रहना साधक का धर्म है।) सर्वदर्शी साधक हर संभावना पर पैनी दृष्टि रखता । कर्तव्य-पथ पर चलने का संकल्प करने के बाद पाँवों का मोच खाना संकल्पों का शैथिल्य है । साधक को चाहिये कि वह आठों याम अप्रमत्ता, आत्म-समानता, अनासक्ति, तटस्थता और निष्कामवृत्ति का पंचामृत पिये-पिलाये।) इसी से प्राप्त होता है कैवल्य-लाभ, सिद्धालय का उत्तराधिकार ।) __ अध्यात्म अन्तरङ्ग एवं बहिरङ्ग का स्वाध्याय । असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति—यही उसके वर्ण शरीर की अर्थ-चेतना है। निजानन्दरसलीनता ही साधक का सच्चा व्यक्तित्व है ) इस आत्मरमणता का ही दूसरा नाम ब्रह्मचर्य है । । [ ४७ ] Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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