Book Title: Mai Hindi Likhne ki aur Kyo Zuka
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 4
________________ [१०] पत्रिकाएँ आदि भाषा की दृष्टि से देखने लगा । श्राचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के रघुवंश, माघ आदि के अनुवाद, अंग्रेजी के स्वाधीनता, शिक्षा श्रादि अनुवाद तो सुने ही, पर तत्कालीन सरस्वती, मर्यादा, अभ्युदय आदि अनेक सामयिक पत्रों को भी कई दृष्टि से सुनने लगा, पर उसमें मुख्य दृष्टि भाषा की रही । रोजमर्रा केवल अच्छे साहित्य को सुन लेने से लिखने योग्य आवश्यक संस्कार पड़ नहीं सकते -यह प्रतीति तो थी ही । श्रतएव साथ ही साथ हिन्दी में लिखाने का भी प्रयोग करता रहा । याद है कि मैंने सबसे पहले संस्कृत ग्रन्थ 'ज्ञानसार' पसन्द किया जो प्रसिद्ध तार्किक और दार्शनिक बहुश्रुत विद्वान् उ. यशोविजयजी की पद्यबद्ध मनोरम कृति है । मैं उस कृति के अष्टकों का भावानुवाद करता, फिर विवेचन भी । परन्तु मैं विशेष एकाग्रता व श्रम से अनुवाद श्रादि लिखाकर जब उसे मेरे मित्र ब्रजलालजी को दिखाता था तब अक्सर वह उसमें कुछ-न-कुछ त्रुटि बतलाते थे । वह विस्पष्ट हिन्दी-भाषी थे और अच्छा लिखते भी थे । उनकी बतलाई त्रुटि अक्सर भाषा, शैली आदि के बारे में होती थी । निर्दिष्ट त्रुटि को सुनकर मैं कभी हतोत्साह हुआ ऐसा याद नहीं श्रता । पुनः प्रयत्न, पुनर्लेखन, पुनरवधान इस क्रम से उस बच्छराज घाट की गुफा जैसी कोठरी में करारे जाये और सख्त गरमी में भी करीब आठ मास बीते । अन्त में थोड़ा सन्तोष हुआ। फिर तो मूल उद्दिष्ट कार्य में ही लगा । वह कार्य था कर्मविषयक जैन ग्रन्थों का हिन्दी में अनुवाद तथा विवेचन करना । उस साल के श्राषाढ़ मास में पूना गया निर्धारित काम तो साथ था ही, पर पूना की राजकीय, सामाजिक और विद्या विषयक हलचलों ने भी मुझे अपने लेखन कार्य में प्रोत्साहित किया । तिलक का गीतारहस्य, केलकर के निबन्ध, राजवावे के गीता-विवेचन श्रादि देखकर मन में हुआ कि जिन कर्मग्रन्थों का मैं वाद विवेचन करता हूँ उनकी प्रस्तावनाएँ मुझे तुलना एवं इतिहास की दृष्टि से लिखनी चाहिए । फिर मुझे ऊँचा कि अब आगरा ही उपयुक्त स्थान है। वहीँ पहुँच कर योग्य साथियों की तजवीज में लगा और अन्त में थोड़ी सफलता भी मिली । इष्ट प्रस्तावनाओं के लिए यथासम्भव विशाल दृष्टि से आवश्यक दार्शनिक संस्कृत- प्राकृत-पालि आदि वाङ्मय तो सुनता हो था, पर साथ में धुन थी हिन्दी भाषा के विशेष परिशीलन की । । इस धुन का चार साल का लम्बा इतिहास है, पर यहाँ तो मुझे इतना ही कहना है कि उन दिनों में सात छोटे-बड़े संस्कृत ग्रन्थ हिन्दी अनुवाद-विवेचन के साथ तैयार हुए और उनकी प्रस्तावनाएँ भी, सर्वोश में नहीं तो अल्पांश में, सन्तोषजनक लिखी गई व बहुत-सा भाग छपा भी । जो ग्रन्थ पूरे तैयार हुए वे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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