Book Title: Mai Hindi Likhne ki aur Kyo Zuka
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 2
________________ [ ८ ] किस कोटि के हैं ? श्री जोशीजी और श्री भट्टजी ने सदस्यों का कुछ परिचय कराया। फिर तो उनकी योग्यता के बारे में सन्देह को स्थान ही न रहा । फिर भी मन में एक सवाल तो बार-बार उठता ही रहा कि निःसन्देह सदस्य सुयोग्य हैं, पर क्या इतनी फुरसत किसी को होगी कि वह मेरा लिखा ध्यान से देख भी लें और यह भी सवाल था कि मैंने दार्शनिक और खासकर साम्प्रदायिक माने जानेवाले कई विषयों पर यथाशक्ति जो कुछ लिखा है उसमें उन सुयोग्य द्रष्टाओं को भी कैसे रस आया होगा? परन्तु जब मैंने सुना कि जोधपुर कॉलेज के प्रो. डॉ. सोमनाथ गुप्त ने सूचना की और सब सदस्यों ने सर्वसम्मति से पारितोषिक देने का निर्णय किया तब मुझे इतनी तसल्ली हुई कि अवश्य ही किसी-न-किसी सुयोग्य व्यक्ति ने पूरा नहीं तो महत्त्व का मेरा लिखा अंश जरूर पढ़ा है। इतना ही नहीं, बल्कि उसने मध्यस्य दृष्टि से गुण-दोष का विचार भी किया है। ऐसी तसल्ली होते ही मैंने श्री भट्ट और श्री जोशी दोनों के सामने पारितोषिक स्वीकार करने की अनुमति दे दी। - पुरस्कार लेने न-लेने की भूमिका इतनी विस्तृत रूप से लिखने के पीछे मेरा खास उद्देश्य है । मैं सतत यह मानता आया हूँ कि पुरस्कार केवल गुणवत्ता की कसौटी पर ही दिया जाना चाहिए, और चाहता था कि इस अान्तरिक मान्यता का मैं किसी तरह अपवाद न बने । अब तो मैं आ ही गया हूँ और अपनी कहानो भी मैंने कह दी है। समिति पारितोषिक देकर अधिकारी पाठकों को यह सूचित करती है कि वे इस साहित्य को पढ़ें और सोचें कि समिति का निर्णय कहाँ तक ठीक है । मेरा चित्त कहता है कि अगर अधिकारी हिन्दी मेरे लिखे विषयों को पढ़ेंगे तो उनको समय व शक्ति बरबाद होने की शिकायत करनी न पड़ेगी। अब मैं अपने असली विषय पर श्राता है। यहाँ मेरा मुख्य वक्तव्य तो इसी मुद्दे पर होना चाहिए कि मैं एक गुजराती, गुजराती में भी झालावाड़ी, तिस पर भी परतन्त्र, फिर हिन्दी भाषा में लिखने की ओर क्यों, कब और किस कारण से झुका ? संक्षेप में यों कहें कि हिन्दी में लिखने की प्रेरणा का बीज क्या रहा ? मेरे सहचर और सहाध्यायी पं. ब्रजलाल शुक्ल जो उत्तर-प्रदेश के निवासी कान्यकुब्ज ब्राह्मण रहे, मेरे मित्र भी थे। हम दोनों ने बंगभंग की हलचल से, खासकर लोकमान्य · को सजा मिलने के बाद की परिस्थिति से, साथ ही काम करने का तय किया था। काठियावाड़ के सुप्रसिद्ध जैन-तीर्थ पालीताना में एक जैन मुनि थे, जिनका नाम था सन्मित्र कपूर विजयजी । हम दोनों मित्रों के वह भदामाअन मी रहे। एक बार उक्त मुनिजी ने ब्रजलालजी.से कहा कि तुम द्रष्टा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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