Book Title: Mai Hindi Likhne ki aur Kyo Zuka Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 6
________________ [ १२ ] दाक्षिणात्य ऐसे हो सकते हैं जो हिन्दी को बराबर नहीं जानते, पर जब हिन्दी भाषा राष्ट्रीय, व्यापक व सरल है तब वे लोग भी, अगर पुस्तक उपादेय है तो, अवश्य सोचेंगे और जिज्ञासा हुई तो इस निमित्त हिन्दी समझने का प्रयत्न भी करेंगे व राष्ट्रभाषा के प्रचार की गति भी बढ़ावैगे। अस्तु, . काशी में था तो कभी-कभी मित्रों ने सलाह दी थी कि मैं अपने ग्रन्थों को मंगलाप्रसाद पारितोषिक के लिए समिति के सम्मुख उपस्थित करूँ, पर मैं कभी मन से भी इस प्रलोभन में न पड़ा। यह सोचकर कि जो लिखा है वह अगर उस-उस विषय के सुनिष्णातों को योग्य व उपयोगी जंचेगा तो यह वस्तु पारितोषिक से भी अधिक मूल्यवान् है; फिर पारितोषिक की आशा में मन को विचलित क्यों करना? और भी जो कुछ प्राक्कथन श्रादि लिखना पड़ता था वह काशी में तो प्रायः हिन्दी में ही लिखता था, पर ई० १६४४ की जनवरी में बम्बई और उसके बाद १६४७ में अहमदाबाद आया तब से आज तक हिन्दी भाषा में लिखने के विचार का संस्कार शिथिल नहीं हुआ है। यद्यपि गुजरात में अधिक. तर गुजराती में ही प्रवृत्ति चलती है, तो भी राष्ट्रीय-भाषा के नाते व पहले के दृढ़ संस्कार के कारण हिन्दी भाषा में लिखता हूँ तब विशेष सन्तोष होता है। इससे गुजरात में रहते हुए भी जुदे-जुदे विषयों पर थोड़ा बहुत कुछ-न-कुछ हिन्दी में लिखता ही रहता हूँ। मैं इस रुचिकर या अरुचिकर रामकहानी को न लिखने में समय बिताता और न सभा का समय उसे सुनाने में ही लेता, अगर इसके पीछे मेरा कोई खास श्राशय न होता । मेरा मुख्य और मौलिक अभिप्राय यह है कि मनुष्य जब कोई संकल्प कर लेता है और अगर वह संकल्प हद तथा विचारपूत हुश्रा तो उसके द्वारा वह अन्त में सफल अवश्य होता है। दूसरी बात जो मुझे सूझती है वह यह कि अध्ययन-मनन-लेखन श्रादि व्यवसाय का मुख्य प्रेरक बल केवल अन्तर्विकास और आत्म-सन्तोष ही होना चाहिये। ख्याति, अर्थलाम, दूसरों को सुधारना इत्यादि बातों का स्थान विद्योपासक के लिए गौण है। खेती मुख्य रूप से अन्न के लिए है; तुष-भसा श्रादि अन्न के साथ आनुषंगिक हैं। मैं गुजरातीभाषी होने के नाते गुजराती भाषा के साहित्य के प्रकर्ष का पक्षपाती रहा हूँ और हूँ, पर इससे राष्ट्र-भाषा के प्रति मेरे दृष्टिकोण में कभी कोई अन्तर न पड़ा, न श्राज भी है । प्रत्युत मैंने देखा है कि ये प्रान्तीय भाषाएँ परस्पर सहोदर भगिनियाँ हैं । कोई एक दूसरी के उत्कर्ष के सिवाय अपना-अपना पूरा और सर्वांगीण उत्कर्ष साध ही नहीं सकतीं। प्रान्तीय भाषा-भगिनियों में भी राष्ट्र-भाषा का कई कारणों से विशिष्ट स्थान है। इस स्थान की प्रतिष्ठा For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.orgPage Navigation
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