Book Title: Mai Hindi Likhne ki aur Kyo Zuka Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 5
________________ [ ११ ] तो छपे, पर बहुत सा ऐसा भाग भी लिखा गया जो मेरी राय में विषय व निरूपण की दृष्टि से गम्भीर था, पर पूरा हुआ नहीं था। मैं उस अधरे मैटर को वहीं छोड़कर १६२१ की गरमी में अहमदाबाद चला आया। गुजरात विद्यापीठ में इतर कार्यों के साथ लिखाता तो था, पर वहाँ मुख्य कार्य सम्पादन और अध्यापन का रहा । बीच-बीच में लिखता अवश्य था, पर गुजराती में अधिक और हिन्दी में केवल प्रसंगवश । यद्यपि गुजरात में गुजराती में ही काम करता रहा फिर भी मुख तो हिन्दी भाषा के संस्कारों की ओर ही रहा । इसी से मैंने तत्वार्थ आदि को हिन्दी में ही लिखना जारी रखा । गुजरात में, तिसमें भी गुजरात विद्यापीठ और गान्धीजी के सान्निध्य में रहना यह प्राचीन भाषा में कहें तो पुण्यलभ्य प्रसंग था। वहाँ जो विविध विषय के पारगामी विद्वानों का दल जमा था उससे मेरे लेखन-कार्य में मुझे बहुत कुछ प्रेरणा मिली। एक संस्कार तो यह दृढ़ हुआ कि जो लिखना वह चालू बोलचाल की भाषा में, चाहे वह गुजराती हो या हिन्दी । संस्कृत जैसी शास्त्रीय भाषा में लिखना हो तो भी साथ ही उसका भाव चालू भाषा में रखना चाहिये । इसका फल भी अच्छा अनुभूत हुआ । अहमदाबाद और गुजरात में बारह वर्ष बीते। फिर ई० १६३३ से काशी में रहने का प्रसंग श्राया। शुरू में दो साल तो खास लिखाने में न बीते, पर १६३५ से नया युग शुरू हुश्रा । पं० श्री दलसुख मालवणिया, जो अभी हिन्दू यूनिवर्सिटी के श्रोरिएण्टल कालेज में जैनदर्शन के विशिष्ट अध्यापक हैं, १६३५ में काशी आये । पुनः हिन्दी में लेखन-यज्ञ की भमिका तैयार होने लगी। प्रमाणमीमांसा, शानबिन्दु, जैनतर्क भाषा, तत्वोपप्लवसिंह, हेतुबिन्दु जैसे संस्कृत ग्रन्थों का सम्पादन कार्य सामने था, पर विचार हुआ कि इसके साथ दार्शनिक विविध मुद्दों पर तुलनात्मक व ऐतिहासिक दृष्टि से टिप्पणियाँ लिखी जाएँ । प्रस्तावना आदि भी उसी विशाल दृष्टि से, और वह सब लिखना होगा हिन्दी में । यद्यपि मेरे कई मित्र तथा गुरुजन, जो मुख्यतया संस्कृत भक्त थे, मुके सलाह देते थे कि संस्कृत में ही लिखो। इससे विद्वत्परिषद् में प्रतिष्ठा बढ़ेगी। मैं चाहता तो अवश्य ही संस्कृत में और शायद सुचारू सरल संस्कृत लिखता, पर मेरे भाषा में लिखने के संस्कार ने मुझे बिलकुल स्थिर रखा । तभी से सोचता हूँ तो लगता है कि हिन्दी भाषा में लिखा यह अच्छा हुआ । यदि संस्कृत में लिखता तो भी उससे आखिर को पढ़ने वाले अपनी-अपनी भाषा में ही सार ग्रहण करते । ऐसी स्थिति में हिन्दी भाषा में लिखे विषय को पढ़नेवाले बहुत आसानी से समझ सकते हैं। मैंने सोचा कि कुछ बंगाली और कुछ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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