Book Title: Mai Hindi Likhne ki aur Kyo Zuka
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 3
________________ [ १ ] हो और स्वतन्त्र भी। अतएव उत्तम-उत्तम जैन ग्रन्थों का अनुवाद करो या सार लिखो और सुखलालजी नहीं देख सकने के कारण लिखने में तो समर्थ हो नहीं सकते, अतएव वह उनके प्रिय अध्यापन कार्य को ही करते रहें। पीछे से मुझे उक्त मुनिजी की सलाह ज्ञात हुई। उसी समय मुझे विचार आया कि क्या मैं सचमुच अपने सुअधीत और सुपरिचित विषयों में भी लिखने का काम कर नहीं सकता ? अन्तमुख मन ने जवाब दिया कि तुम जरूर कर सकते हो और तुम्हें करना भी चाहिए । यह जवाब संकल्प में परिणत तो हुआ, पर आगे प्रश्न था कि कब और कैसे उसे असली रूप दिया जाए ? मेरा दृढ़ संकल्प तो दूसरा कोई जानता न था, पर वह मुझे चुप बैठे रहने भी न देता था। एक बार अचानक एक पढ़े-लिखे गुजराती मित्र मा गए । मुझसे कहा कि इन पच्चीस प्राकृत गाथाओं का अनुवाद चाहिए। मैं बैठ गया और करीब सवा घण्टे में लिख डाला। दूसरा प्रसंग सम्भवतः बड़ौदे में आया। याद नहीं कि वह अनुवाद मैंने गुजराती में लिखवाया या हिन्दी में, पर तब से वह संकल्प का बीज अंकुरित होने लगा और मन में पका विश्वास पैदा हुआ कि अध्यापन के अलावा मैं लिखने का काम भी कर सकूँगा। मेरे कुछ मित्र और सहायक अागरा के निवासी थे । अतएव मैं ई० १६१६ के अन्त में श्रागरा चला गया। उधर तो हिन्दी भाषा में ही लिखना पड़ता था, पर जब मैंने देखा कि काशी में दस साल बिताने के बाद भी मैं हिन्दी को शुद्ध रूप में जानता नहीं हूँ और लिखना तो है उसी भाषा में, तब तुरन्त ही मैं काशी चला गया। वह समय था चम्पारन में गान्धीजी के सत्याग्रह करने का। गंगातट का एकान्त स्थान तो साधना की गुफा जैसा था, पर मेरे कार्य में कई बाधाएँ थीं। मैं न शुद्ध पढ़नेवाला, न मुझे हिन्दी साहित्य का विशाल परिचय और न मेरे लिए अपेक्षित अन्य साधनों की सुलभता । पर आखिर को बल तो संकल्प का था ही। जो और जैसे साधन मिले उन्हों से हिन्दी भाषा का नए सिरे से अध्ययन शुरू किया। अध्ययन करते समय मैंने बहुत ग्लानि महसूस की। ग्लानि इसलिए कि मैं दस साल तक संस्कृत और तद्वत् अनेक विषयों को हिन्दी भाषा में ही पढ़ता था; फिर भी मेरी हिन्दी भाषा, अपने अपने विषय में श्रसाधारण पर हिन्दी की दृष्टि से दरिद्र तथा पुराने ढरे की हिन्दी बोलने वाले मेरे अनेक पूज्य अध्यापकों से कुछ भी आगे बढ़ न सकी थी। पर इस ग्लानि ने और बल दिया । . फिर तो मैंने हिन्दी के कामताप्रसाद गुरु, रामजीलाल श्रादि के कई व्याकरण ध्यान से देखे । हिन्दी साहित्य के लब्धप्रतिष्ठ लेखकों के ग्रन्थ, लेख, पत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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