Book Title: Mahavira Prabandh Kavyo ka Adhyayana
Author(s): Divyagunashreeji
Publisher: Vichakshan Prakashan Trust

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Page 12
________________ उपदेशों के लिए या दूसरों के लिये नहीं, अपितु स्वयं अहिंसा के सामने अहिंसक बनकर उदाहरण प्रस्तुत किया। महावीर के ये गुण मुझे बचपन से ही आकर्षित करते रहे, ज्यों-ज्यों मैं उनके जीवन को पढ़ती गयी, हर बार एक नयी दृष्टि मेरे सामने उभरती गयी। मुझे लगा महावीर जैन धर्म के दायरे में ही सीमित न रहे, उनके सिद्धांत और आदर्श विश्व को सत्य, अहिंसा, प्रेम और मानवता का संदेश दे सके । अतः उसी विशाल परिप्रेक्ष्य में मैने यह अध्ययन प्रारंभ किया। जैसी ही मेरी जिज्ञासा बढ़ी मैं भगवान महावीर पर लिखे गये . साहित्य का अवलोकन करने लगी। मुझे इन सब में से काव्यविधा में रुचि होने के कारण उनके संबंध में लिखे गये प्रबन्ध अधिक रुचिकर लगे । यद्यपि भगवान महावीर पर अनगिनत मुक्तक काव्य लिखे गये हैं। इन प्रबंधों में भगवान महावीर का जीवन तत्कालीन परिस्थितियाँ उनके सिद्धांत आदि का बड़ा ही सरस वर्णन हैं। इन सबका उल्लेख मैने प्रत्येक कृति के संक्षिप्त विवेचन में प्रस्तुत किया हैं। महाप्रबंध लिखना मुझ जैसी विहार करनेवाली साध्वी के लिये असंभव सा लगता था, पर ज्ञान की पिपासा की तृप्ति भी आवश्यक थी। चार-पाँच वर्ष पूर्व जयपुर और भरतपुर चातुर्मासों में इसी विषय को लेकर अध्ययन किया। कुछ लिखा भी, पर लगता था अभी निमित्त नहीं आया था। कुछ निराशा भी थी, पर गत वर्ष अहमदाबाद के चातुर्मास के दौरान संयोग मिला । डॉ. शेखरचंद्र जैन के मार्गदर्शन में कार्य का प्रारंभ किया और मन की दृढ़ भावना के कारण यह कार्य संपन्न कर सकी। यह मेरा दावा नहीं है कि मैंने कोई खोजकार्य किया, पर उत्तम प्रबंधों का समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तुत कर सकी और जिन महान कवियों ने अपनी भावनायें कार्यबद्ध की उनका रस दर्शन कर सकी। साध्वी होने के नाते स्वान्तः सुखाय ही मेरा परम संतोष है। ___ मैं सर्वप्रथम उदारचेता वात्सल्यमूर्ति शतावधानी शासनज्योति प. पूजनीया मनोहरश्रीजी म.सा. के आशीर्वाद और सत्प्रेरणा को कैसे भूलूँ। जो मेरी इस अध्ययनकल्पना को साकार करनेवाली रही है । इस महाप्रबंध की प्रेरणास्त्रोत वे ही हैं। मैं कृतज्ञ हूँ प.पू. विदुषीवर्या श्री मुक्तिप्रभाश्रीजी म.सा. की जिनका आद्यन्त सहयोग मुझे मिलता रहा । यदि संघस्थ साध्वीगण की ममता और उत्साह-वर्णन न मिला होता तो मैं इतनी समता से कार्य संपन्न न कर पाती। इस शोधग्रन्थ में डॉ. शेखरचन्द्र जैन के प्रति आभार व्यक्त करती हूँ जिनकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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