Book Title: Mahavira Bhagavana
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

View full book text
Previous | Next

Page 7
________________ श्रीमहावीराय नमः | प्रस्तावना | "प्रभु स्वरूप अति अगम अथाह, क्यों हमसे यह होय निवाह" सुरुगुरूसे वंदनीक, अविकार गुणसमुद्र, सर्वहितैषी, परमब्रह्म, पतितपावन, पुनीत परमात्मा महावीरके कल्याणकारी जीवनका वर्णन परिमित शब्दोंमे करनेका साहस करना दुरसाहस } मात्र धृष्टता है । उस उन्मत्त पुरुषकी क्रिया सदृश है जो उद्धत तरल तरङ्गकर वेष्टित अगाध उदधिकी थाह लेनेके लिए अग्रगामी 1 हुआ हो । भला जब उन विशुद्ध प्रभुके साक्षात् दर्शन करनेवाले, मति, श्रुति, अवधि, मनःपर्यय एवं केवलज्ञान के धारक गणधर ¦ ' भगवान भी उन परमोत्कृष्ट प्रभुके गुणगान करनेको पर्याप्त समर्थ नही हुए, तो इस कालके एक क्षुद्र छद्मस्थ मानवकी क्या शक्ति है कि वह उन प्रभुके दिव्य जीवनका प्रकाश प्रकट कर सके ? यही बात मेरे परमप्रिय श्रद्धेय मित्र श्रीमान् वैरिष्टर चम्पतरायजीने अन्यत्र ; अपनी भूमिकामे प्रकट की है ! तो फिर क्या भगवानके जीवन के विषयमें हम कुछ नही कह सक्ते ? अपने जाराध्यदेव, हृदय के तारे, त्रिजग उजियारेके यशगान हम नही कर सक्ते ? क्या हमारे शुद्ध अन्तः करणकी पुनीत भक्तांजलि भी उनको समर्पित नहीं की ना । सक्ती ? भक्तिकी महोघ शक्तिसे अवश्य ही अम्म्म्भव संभव हो जाता है । प्रेमके आवेशमें क्षुद्र मृग निजसुतकी रक्षा निमित्त 'मृगपतिका सामना करते नही डरता है ! अतएव भक्तिकी मनमोहन तरंगने परमात्मा नहा वीरके पवित्र जीवनपर फिरसे प्रकाश डाल भले ही मैने "प्रांशु लभ्ये फले लेमा

Loading...

Page Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 ... 309