Book Title: Mahavir Jin Stavan Author(s): Shilchandrasuri Publisher: ZZ_Anusandhan View full book textPage 4
________________ December - 2003 १२५ दूहा ॥ वंदू वीर भगवंतनि, नही जस लोभ लगार । क्रोध मांन माया नही, टाल्यां दोष अढार ॥१९॥ ढाल ॥ भवीजनो मति मुको जीनध्यानि || राग-शामेरी ॥ दोष अढार जे जीन कह्या, ते नही अरीहा पासइ रे । ज्यु मृगपति देखी मदिमातो, मेगल सो पणि न्हासइ रे ॥ कवीजनो, गुण गाओ जीन केरा, आल पंपाल म म ऊचरो जस म म बोलो अनेरा रे, कवीजनो, गुण गायो जीन केरा ॥ आचली ।।२०|| दान दीइ जीन अतीघj, को न करइ अंतराइ रे । लाभ घणो जीनवर तुझ जाणुं, बहु प्रतिबोध्या जाइ रे ॥ क० ॥२१॥ अंतराय जीन नई नही, वीरयाचार वसेषो रे । तप जप तुं संयम जिन पालइ, आलस नही तुझ रेखो रे ॥क० ॥२२॥ भोग घणो भगवंतनई, अनइ वली अवभोगाइ रे । केसर चंदन अंग्य वलेपइ, समोवसरण तुझ थाइ रे ॥क० ॥२३॥ हाशवीनोध क्रीडा नही, रति-अरती नहीं नामो रे । भइ-दूगंछा जिन नवि राखइ, शोष अनि नही कामो रे ॥क० ॥२४॥ मीथ्या मुख्य नवी बोलवं, जीननि नही अग्यनांनो रे । नीद्रा नही नीसइ सही जाणो, अवरत्यनि नही मानो रे ॥क० ॥२५॥ रागद्वेष जेणइ जीपीआ, साधइ सीवपूर वाटो रे । जे षट्काई हुओ रखवालों, जेणइ छंड्या मद आठो रे ॥क० ॥२६॥ ढाल || नंदनकु त्रीसला हुलरावइ || आठइ मद जे मेगल सरीखा, जीन जीपी जीन वारइ रे । मान थकी गति लहीइ नीची, पंडीत आप वीचारइ रे ॥ आठइ मद जे मेगल सरीखा ॥२७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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