Book Title: Mahavir Jin Stavan
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 1
________________ १२२ कवि ऋषभदासरचित श्रीमहावीर जिनस्तवन सं. विजयशीलचन्द्रसूरि कवि ऋषभदासनी एक अप्रकट रचना 'महावीरजिनस्तवन' अत्रे प्रकाशित थाय छे. कर्ताए स्वहस्ते लखेल ऋण पानांनी प्रतिने आधारे आ सम्पादन करवामां आव्युं छे. ४१ को प्रमाण आ स्तवन सं. १६६६ना दीवालीदिने बावती- खंभातमां रचायेलुं छे. ते समये बोलचालना व्यवहारमां प्रयोजाती भाषानो उपयोग थयेला आ कविनी रचनाओमां सर्वत्र जोवा मळे छे; भाषा अने बोलीना ए प्रयोगो भाषाशास्त्रना तथा बोलीओना अभ्यासी जनो माटे उपयोगी होई शके. अनुसंधान- २६ श्रीमहावीरस्तवन ॥ ढाल ! वंछीतप (पू) रण मनोहरू || राग - - शामेरी ॥ सरसति सांम्यणि पाइ नमुं, श्रीजिन- गुरूवचने रमुं, नीत्य नमुं वर्धमान चोवीसमो ए ॥१॥ सीधारथ- कुलि दीवो ए त्रीसलानंदन जीवो ए, जीवो ए ए नहइसार तणो वली ए ॥ २॥ चईत्र स(सु) कल तेरश दीर्निं, प्रभु जनम्यो अति स्युभलगनि, बहु धनि राय सीधार्थ वाधओ ए ॥३॥ राजरमणि सूख भोगवइ, पंच वीषइ सूख जोगवइ, संयमसमइ लोकांतीक सूर ते कहइ ए ||४|| दानसंवछरी देई करी, संयमरमणी तीहा वरी, Jain Education International ऊलट धरी दीक्षामोहोछव सूर करइ ए ॥५॥ संयम चोखुं पालतो, कर्म कठणनि गालतो, टालतो घनघाती कर्म व्यारनि ए ॥६॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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