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कवि ऋषभदासरचित श्रीमहावीर जिनस्तवन
सं. विजयशीलचन्द्रसूरि
कवि ऋषभदासनी एक अप्रकट रचना 'महावीरजिनस्तवन' अत्रे प्रकाशित थाय छे. कर्ताए स्वहस्ते लखेल ऋण पानांनी प्रतिने आधारे आ सम्पादन करवामां आव्युं छे. ४१ को प्रमाण आ स्तवन सं. १६६६ना दीवालीदिने बावती- खंभातमां रचायेलुं छे. ते समये बोलचालना व्यवहारमां प्रयोजाती भाषानो उपयोग थयेला आ कविनी रचनाओमां सर्वत्र जोवा मळे छे; भाषा अने बोलीना ए प्रयोगो भाषाशास्त्रना तथा बोलीओना अभ्यासी जनो माटे उपयोगी होई शके.
अनुसंधान- २६
श्रीमहावीरस्तवन ॥
ढाल ! वंछीतप (पू) रण मनोहरू || राग - - शामेरी ॥ सरसति सांम्यणि पाइ नमुं, श्रीजिन- गुरूवचने रमुं, नीत्य नमुं वर्धमान चोवीसमो ए ॥१॥ सीधारथ- कुलि दीवो ए त्रीसलानंदन जीवो ए, जीवो ए ए नहइसार तणो वली ए ॥ २॥ चईत्र स(सु) कल तेरश दीर्निं, प्रभु जनम्यो अति स्युभलगनि, बहु धनि राय सीधार्थ वाधओ ए ॥३॥ राजरमणि सूख भोगवइ, पंच वीषइ सूख जोगवइ,
संयमसमइ लोकांतीक सूर ते कहइ ए ||४|| दानसंवछरी देई करी, संयमरमणी तीहा वरी,
ऊलट धरी दीक्षामोहोछव सूर करइ ए ॥५॥ संयम चोखुं पालतो, कर्म कठणनि गालतो, टालतो घनघाती कर्म व्यारनि ए ॥६॥
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च्यारे चीकणां करम रे, नाणांवरणीअ
कर्म कठण जे दंसणां ए ॥७॥ मोहनी नि अंतराय रे, ए पणि खइ करइ तव अरीहा केवल वरइ ए ॥८॥ समोवसर्ण सुर सार रे, रचता रंगस्युं
ऋणि वप्रस्य पीठिका ए ||९|| रयण सीघासण च्यार रे, च्यार धजा सही
चामर वीजइ च्योहो गमां ए ॥१०॥ भामंडल जिन पूठ्य रे, अशोष तरु सही
वीस हजार गढि पगथीआ ए ॥११॥ च्यार पूखरणि वाव्य रे, समोवसरण धरिं अढी कोस ऊंचूं सही ए ॥ १२ ॥
ढाल ॥ एणी परि राय करंता रे ॥
दूहा ॥
वर्धमांन जीन त्यांहा ठवी, करता वचन प्रकास । सकल गुणे करी दीपतो, अतीसहइ चोतीस तास ॥१३॥
त्रु० ॥
ढाल || दइ दइ दरसण आपणूं || राग- गोडी || अतीसहइ चोतीस जीनतणा, प्रथमइ रुप अपार रे । रोग रहीत तन नीरमलुं, चंपकगंध सुसार रे ।। सार चंपक तन सुगंधी भमर भंग त्याहा भइ सास निं उसास सुंदर, कमलगंधो मुख्य रमइ । रुधीर मंश गोखीरधारा, अद्रीष्ट आहार नीहार रे
सहइजना ए च्यार अतीसहइ, करमधाति अग्यार रे || १४ |
समोवर्ण्य बारइ परषदा, जोयन मांह्य समाय रे । वाणी जोयनगाम्यणी, बुझइ सूर नर राइ रे ॥
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अनुसंधान-२६
[त्रु०] राय बुझ[इ] रव्य सरीखं भामंडल पूंठि सही
जोअण सवो(वा) सो लगि भाई रोग नीसइ ते नही । सकल वइर पणि वलि जाइ, सातइ ईत समंत रे मारि मरगी नहीअ नीसइ, अतीवृष्टी नवी हंत रे ॥१५॥ अनवृष्टी नही जिन थकइ, दूरभष्य नही ज लगारो रे ।
स्वचक्र-परचक्र-भइ नही, ए गुण जुओ अग्यारो रे ।। त्रु० ॥ अग्यार गुण ए केवल पामइं सुर-कीआ ओगणीस रे
धर्मचक्र आकाश चालइ चामर दो नतिदीस रे । रत्नसीघासण पादपीठिं छत्र त्रणि सही सीस रे इंद्रधज आकाश-ऊंचो जुओ जिनह जगीस रे ॥१६।। परमेस्वर पग ज्यांहां ठवइ, कमल धरइ नव घेवो रे ।
रूप कनक मणि रत्न मइ तीन रचइ गढ देवो रे ॥ [त्रु०]
देव गढ त्रणि रचइ रंगई समोवसर्ण्य चोरूप रे अशोषतरु तली वीर बइसइ जुओ जीनह सरूप रे । अधोमुखि त्याहा कहुं कंटिक सकल वीरष नमंत रे दूदभी आकाश वाजई शबद सहअ गमंत रे ||१७|| पवन फरुकइ कुअलों अतीझीहीणो अनकुल रे ।
पंखी दइ परदक्षणा, स्युकन वदइ मुख्य-मुल रे ॥ त्रु० ॥ मुल मुख्यथी स्युकन बोलइ सूगंधि वीष्ट सोहामणी
सूर सोभागी सोय वरसइ पुफवीष्ट होइ घणी । समोसरणिं पंचवरणां पूफ ते ढीचणसमइ नख केस रोमह ते न वाधइ सूर कोडि त्याहां रंगि रमइ ॥ इंद्रीनि अनुकुल होइ षट् सोय रति सोहामणि चोतीस अतीसहइ वीर केरा वीर शोभा अत्यघणी ॥१८॥
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दूहा ॥ वंदू वीर भगवंतनि, नही जस लोभ लगार । क्रोध मांन माया नही, टाल्यां दोष अढार ॥१९॥ ढाल ॥ भवीजनो मति मुको जीनध्यानि || राग-शामेरी ॥ दोष अढार जे जीन कह्या, ते नही अरीहा पासइ रे । ज्यु मृगपति देखी मदिमातो, मेगल सो पणि न्हासइ रे ॥ कवीजनो, गुण गाओ जीन केरा, आल पंपाल म म ऊचरो जस म म बोलो अनेरा रे, कवीजनो, गुण गायो जीन केरा ॥ आचली ।।२०|| दान दीइ जीन अतीघj, को न करइ अंतराइ रे । लाभ घणो जीनवर तुझ जाणुं, बहु प्रतिबोध्या जाइ रे ॥ क० ॥२१॥ अंतराय जीन नई नही, वीरयाचार वसेषो रे । तप जप तुं संयम जिन पालइ, आलस नही तुझ रेखो रे ॥क० ॥२२॥ भोग घणो भगवंतनई, अनइ वली अवभोगाइ रे । केसर चंदन अंग्य वलेपइ, समोवसरण तुझ थाइ रे ॥क० ॥२३॥ हाशवीनोध क्रीडा नही, रति-अरती नहीं नामो रे । भइ-दूगंछा जिन नवि राखइ, शोष अनि नही कामो रे ॥क० ॥२४॥ मीथ्या मुख्य नवी बोलवं, जीननि नही अग्यनांनो रे । नीद्रा नही नीसइ सही जाणो, अवरत्यनि नही मानो रे ॥क० ॥२५॥ रागद्वेष जेणइ जीपीआ, साधइ सीवपूर वाटो रे । जे षट्काई हुओ रखवालों, जेणइ छंड्या मद आठो रे ॥क० ॥२६॥
ढाल || नंदनकु त्रीसला हुलरावइ || आठइ मद जे मेगल सरीखा, जीन जीपी जीन वारइ रे । मान थकी गति लहीइ नीची, पंडीत आप वीचारइ रे ॥
आठइ मद जे मेगल सरीखा ॥२७॥
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अनुसंधान- २६
जातिगरभ नव्य कीजइ भाई, लाभतणो मद तजीइ रे । उंच कुंलांनुं मांन करंतां, नीचकुलां जइ भजीइ रे || ० |२८|| प्रभुता निं ए बल मद वारो रूप मान एकमनो रे । सनतकुमार जुओ जगि चकवइ, अंगि रोग उपनो रे || आ० | २९ ॥ तप मद करतां पूण्य पलाइ, श्रुतमद मुरिख थाईइरे । कहइ जीनराज सूणो रे लोगां, चोखइ च्यंति रहीइ रे || आ० |३०||
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ढाल ॥ कहइणी करणी तुझ व्यण साचो ॥ आठि मद जीप्या जीन वीरई, कीधो जगह प्रकासो जी । शंघ चतुरवीध्य स्वामी थापइ, हरी लावइ तीहा वासो जी । आठइ मद जीप्या जीन वीरइं ॥ आचली ॥३१॥
चउंद हजार मुनीवर अतीमोटा, गणधरवर अग्यारो जी । छत्रीस हजार अजीआ त्यांहा दीखी, निरमल जस आचारोजी || आ०|३२||
एक लाख उपरि वली भाषे, ओगणसठि हजारो जी । श्रावक वीरतणा ए वारू, नीपण सूखी दातारो जी || आ०|३३||
सूलसा परमुख त्रयं लष्य कहीइ, अज्जकी सहइस अढारो जी । वीरतणी ए सुदर श्रावीका, सती सरोमणि सारो जी || ० |३४| ए परीवार श्रीजिनवर केरो, नमीइ बड़ कर जोड्योजी । शंघ चतुरवीधि स्वामीकेरो, तपज्यो सागर कोड्यो जी || आ० |३५|| अनुकरमिं प्रभु वीहार करता, आरय अनारय देसो जी । पापानगरी माहझं पोहोता, टालइ काय कलों (ले) स्यो जी || आ० ||३६||
नामकरम निं बीजु आउंषु वेदनी गोत्र वीचार्यो जी । च्यारे कर्मनि वीर खेपवी, पोहोता मुगत्य मझार्यो जी || आ० ३७॥ संवत अंग अंग अंग चंदि आसो मास दीवालीजी ! श्रीगुरुवारि त्रंबवती म्हां, थंभण पास नेहालीजी || आ० |३८||
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भावि भगतिं चरम जिनेस्वर, स्तवीओ बहु सुखकारीजी । राजरीधि सुख संपति पामइ, सुणिय को नरनारी जी । आठइ मद जीप्या जीन वीरि, कीधो जगह प्रकासो जी ॥३९॥
-
कलस ||
करी प्रकास जिन मुगति पोहोता, वर्धमान नरवीर रे शास्यन जेहनुं आज वरतिं नीरमल गंगानीर रे ||४०||
कडी
२
४
तपगछ साचो देखी राचो वीजड़ सेनसूरि गछधणी । सागणनो सूत ऋषभ पभणइ वीर नांमिं ऋधि घणी ॥४१॥
इती वीरस्तवन संपूरण |
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२०
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ईत
नहइसार
लोकांतीक
अशोष
पूखरणि
अतीसहइ
भंगि
दूरभष्य
वीरष
कुअलों
मुख्यमुल
सूर मेगल
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केटलाक शब्दो
नयसार ( महावीर स्वामीनुं प्रथम जन्मनुं नाम)
देवजातिनुं नाम
अशोक (वृक्ष)
पुष्करिणी
अतिशय
भृंग
ईति = उपद्रवो
दुर्भिक्ष
वृक्ष.
कोमल
मुखना मूळथी-मों वडे सुर-देव
मयगल-हाथी
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________________ अनुसंधान-२६ अवभोगाइ उपभोग हाशवीनोध हास्य विनोद भइ भय नीसइ निश्चे-निश्चयथी. षट काई छ जीव-काय जातिगरभ जातिगर्व चकवइ चक्रवर्ती च्यंति चित्ते अजीआ आर्या-साध्वी नीपण निपुण सागर कोड्यो क्रोडो सागरोपम सुधी (कालविशेष)