Book Title: Mahavir Jin Stavan
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 3
________________ १२४ अनुसंधान-२६ [त्रु०] राय बुझ[इ] रव्य सरीखं भामंडल पूंठि सही जोअण सवो(वा) सो लगि भाई रोग नीसइ ते नही । सकल वइर पणि वलि जाइ, सातइ ईत समंत रे मारि मरगी नहीअ नीसइ, अतीवृष्टी नवी हंत रे ॥१५॥ अनवृष्टी नही जिन थकइ, दूरभष्य नही ज लगारो रे । स्वचक्र-परचक्र-भइ नही, ए गुण जुओ अग्यारो रे ।। त्रु० ॥ अग्यार गुण ए केवल पामइं सुर-कीआ ओगणीस रे धर्मचक्र आकाश चालइ चामर दो नतिदीस रे । रत्नसीघासण पादपीठिं छत्र त्रणि सही सीस रे इंद्रधज आकाश-ऊंचो जुओ जिनह जगीस रे ॥१६।। परमेस्वर पग ज्यांहां ठवइ, कमल धरइ नव घेवो रे । रूप कनक मणि रत्न मइ तीन रचइ गढ देवो रे ॥ [त्रु०] देव गढ त्रणि रचइ रंगई समोवसर्ण्य चोरूप रे अशोषतरु तली वीर बइसइ जुओ जीनह सरूप रे । अधोमुखि त्याहा कहुं कंटिक सकल वीरष नमंत रे दूदभी आकाश वाजई शबद सहअ गमंत रे ||१७|| पवन फरुकइ कुअलों अतीझीहीणो अनकुल रे । पंखी दइ परदक्षणा, स्युकन वदइ मुख्य-मुल रे ॥ त्रु० ॥ मुल मुख्यथी स्युकन बोलइ सूगंधि वीष्ट सोहामणी सूर सोभागी सोय वरसइ पुफवीष्ट होइ घणी । समोसरणिं पंचवरणां पूफ ते ढीचणसमइ नख केस रोमह ते न वाधइ सूर कोडि त्याहां रंगि रमइ ॥ इंद्रीनि अनुकुल होइ षट् सोय रति सोहामणि चोतीस अतीसहइ वीर केरा वीर शोभा अत्यघणी ॥१८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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