Book Title: Mahabandho Part 1
Author(s): Bhutbali, Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 9
________________ प्रकाशकीय (प्रथम संस्करण) प्राचीन जैन ग्रन्थों की शोध-खोज, सम्पादन-प्रकाशन तथा आधुनिक लोकोपयोगी, धार्मिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक, सुरुचिपूर्ण भव्य साहित्य के निर्माण और प्रकाशन की भावनाओं से प्रेरित होकर सेठ शान्तिप्रसादजी और उनकी सहधर्मचारिणी श्रीमती रमारानीजी ने फाल्गुन कृष्ण ६, वि. सं. २०००, शुक्रवार, १८ फरवरी, १६४४ को बनारस में भारतीय ज्ञानपीठ की स्थापना की। उनकी धर्मनिष्ठ स्नेहमयी स्वर्गीया माता मूर्तिदेवी की अभिलाषा जैन सिद्धान्त ग्रन्थों-विशेषकर जयधवल, 'महाधवल' के उद्धार की थी। अतः उनकी अभिलाषा की पूर्तिस्वरूप उनकी पवित्र स्मृति में ज्ञानपीठ से एक मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला प्रकाशित की जा रही है। ज्ञानपीठ की स्थापना को ३-४ मास ही हुये थे कि श्री पं. सुमेरुचन्द्रजी दिवाकर ने स्वसम्पादित प्रस्तुत ग्रन्थराज प्रथम खण्ड को ज्ञानपीठ से प्रकाशित करने की अभिलाषा प्रकट की। माताजी की अभिलाषा पूर्तिस्वरूप जयधवल का प्रकाशन जैन संघ के तत्त्वावधान में प्रारम्भ हो चुका था। अतः 'महाधवल' को ज्ञानपीठ से प्रकाशित करना तुरन्त निश्चय कर लिया गया और वीरशासन जयन्ती की शुभ वेला में प्रेस में दे दिया। परम सन्तोष की बात है कि ३ वर्ष पश्चात् श्रुतपंचमी के पुण्य दिवस पर उत्सुक और भक्तिविभोर जनता को उसके पूजन का अवसर मिल रहा है। हमारी अभिलाषा इसे शीघ्र से शीघ्र प्रकाशित करने की थी, पर प्रेस आदि की कठिनाइयों के कारण ऐसा नहीं हो सका। दिवाकर जी ने अनेक विघ्न-बाधाओं को पार करके जिस साहस और अदम्य उत्साह से यह अलभ्य ग्रन्थ प्राप्त किया, उतनी ही लगन और परिश्रम से इसका सम्पादन किया है। ग्रन्थराज की उपलब्धि, अनुवाद और सम्पादनादि सब कुछ आत्मकल्याण की पवित्र भावना से किया है और इसी भाव से ज्ञानपीठ को प्रकाशन के लिए भेंट कर दिया है। जिनवाणी के उद्धार की दिवाकरजी की यह निस्पृह भावना और लगन अनुकरणीय और अभिनन्दनीय है। हम उन धर्म-प्रेमी महाशयों का विशेषतः मूडबिद्री के पू. भट्टारकजी का स्मरण करके आत्म-विभोर हो उठते हैं, जिन्होंने घोर संकट काल में, जब कि शास्त्रों को जला-जलाकर स्नान के लिए पानी गरम किया जाता था, मन्दिर विध्वंस किये जाते थे प्राणों से लगाकर इस ग्रन्थरत्न की रक्षा की और उपयुक्त समय आने पर उनके उत्तराधिकारियों ने भगवन्त भूतबलि की यह धरोहर समाज के कल्याणार्थ सौंप दी। समाज उन सभी बन्धुओं का आभारी है जिन्होंने इस ग्रन्थराज की गोपनीय भण्डार से उपलब्धि और प्रतिलिपि कराने में एक क्षण के लिए भी सहयोग दिया है अथवा प्रयत्न किया है। वे महानुभाव भी कम आदर के पात्र नहीं हैं जिन्होंने ग्रन्थ की प्राप्ति में विघ्न नहीं डाला, क्योंकि बने-बनाये शुभ कार्य तनिक-से विघ्न से छिन्न-भिन्न होते देखे गये हैं। पं. परमानन्दजी साहित्याचार्य और पं. कुन्दनलालजी शास्त्री के हम विशेषतः आभारी हैं जिन्होंने उक्त ग्रन्थ के सम्पूर्ण आद्य अनुवाद में दिवाकर जी को नींव की ईंट की तरह सहयोग देकर इस ग्रन्थप्रासाद की जड़ जमायी। ज्ञानपीठ के प्राकृत विभाग के सम्पादक ख्यातिप्राप्त डॉ. हीरालालजी ने इस ग्रन्थ का प्रास्ताविक लिखा है और संस्कृत विभाग के सम्पादक न्यायाचार्य पं. महेन्द्रकुमारजी की देख-रेख में मुद्रण और प्रकाशन हुआ है। समस्त प्रूफ उन्होंने देखे हैं। दोनों ही विद्वान् ज्ञानपीठ के विशिष्ट अंग हैं, उन्हें धन्यवाद देने का हमें अधिकार नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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