Book Title: Mahabandho Part 1
Author(s): Bhutbali, Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 11
________________ प्रास्ताविकं किंचित (प्रथम संस्करण) जब मैंने 'षटूखण्डागम' का सम्पादन प्रारम्भ किया था, तब मेरे मार्ग में अनेक विघ्न-बाधाएँ उपस्थित थीं। तो भी जब उक्त ग्रन्थ का प्रथम भाग सन् १९३६ में प्रकाशित हुआ और लोगों ने उसका आनन्द से स्वागत किया, तब मुझे यह आशा हो गयी कि कठिनाइयों के होते हुए भी यथासमय तीनों सिद्धान्त ग्रन्थ प्रकाश में लाये जा सकेंगे। फिर भी मुझे यह भरोसा नहीं था कि मेरी आशा इतने शीघ्र सफल हो सकेगी और साहित्यिक प्रवृत्तियों में संसार-युद्ध के कारण अधिकाधिक बाधाओं के उपस्थित होते हुए भी, जयधवल का प्रथम भाग सन् १६४४ में तथा 'महाबन्ध' का प्रथम भाग सन् १९४७ में ही प्रकाशित हो सकेगा। जैन समाज और उसके विद्वानों के इन सफल प्रयलों से भविष्य आशापूर्ण प्रतीत होता है। ___ मैं 'षट्खण्डागम' के प्रथम भाग की प्रस्तावना में बतला चुका हूँ कि धवल और जयधवल सिद्धान्तों की प्रतिलिपियाँ सन् १९२४ में ही मूडबिद्री के शास्त्रभण्डार से बाहर आ गयी थी और उसके पश्चात् कुछ वर्षों में उनकी प्रतियाँ उत्तर भारत में उपलभ्य हो गयीं। किन्तु 'महाधवल' नाम से प्रसिद्ध सिद्धान्त ग्रन्थ फिर भी मूडबिद्री सिद्धान्त मन्दिर में ही सुरक्षित था। जब मैंने सन १६३५-३६ में इन सिद्धान्त ग्रन्थों अन्तर्गत विषयों को जानने का प्रयत्न प्रारम्भ किया, तब मुझे यह जानकर बड़ा विस्मय हुआ कि जो कुछ थोड़ा-बहुत वृत्तान्त 'महाधवल' की प्रति के विषय में प्राप्त हो सका था, उसके आधार पर उस प्रति में केवल वीरसेनाचार्यकृत 'सत्कर्म चूलिका' की एक पंजिका मात्र है और 'महाबन्ध' का वहाँ कुछ पता नहीं चलता। तब मैंने इस विषय पर अपनी आशंका और चिन्ता को प्रकट करते हुए कुछ लेख प्रकाशित किये और अधिकारियों से इस विषय की प्रेरणा भी की कि वे मूडबिद्री की समीक्षण कराकर 'महाबन्ध' का पता लगाएँ। मुझे यह कहते हर्ष होता है कि मेरी वह प्रार्थना शीघ्र सफल हुई। मूडबिद्री के भट्टारकजी महाराज ने, पं. लोकनाथ शास्त्री व पं. नागराज शास्त्री से ताड़पत्रीय प्रति की जाँच करायी और मुझे सूचित किया कि उक्त पंजिका ताडपत्र २७ पर समाप्त हो गयी है, एवं आगे के पत्रों पर 'महाबन्ध' की रचना है। देखिए, जैन सिद्धान्त भास्कर (भाग ७, जून १६४०, पृ. ८६-९८) में प्रकाशित मेरा लेख 'श्री 'महाधवल' में क्या है?' एवं 'षट्खण्डागम' भाग ३, १६४१ की भूमिका प्र. ६-१४ में समाविष्ट 'महाबन्ध' की खोज'। इस अन्वेषण से उत्पन्न हुई रुचि बढ़ती गयी और शीघ्र ही, विशेषतः पं. सुमेरचन्द्रजी दिवाकर के सत्प्रयत्न से, दिसम्बर १६४२ तक 'महाबन्ध' की प्रतिलिपि भी तैयार हो गयी व उन्होंने प्रस्तुत प्रथम भाग का सम्पादन व अनुवाद कर डाला। उनके इस स्तुत्य कार्य के लिए मैं उन्हें बहुत धन्यवाद देता हूँ। पण्डितजी ने अपनी प्रस्तावना में जो सामग्री उपस्थित की है, उसके साथ 'षट्खण्डागम' के प्रकाशित ७ भागों में मेरे-द्वारा लिखी गयी भूमिकाओं को पढ़ लेने की मैं पाठकों से प्रेरणा करता हूँ। इससे इन सिद्धान्तों के इतिहास व विषय आदि का बहुत कुछ परिचय प्राप्त हो सकेगा। पण्डितजी की भूमिका के पृ. ३० पर णमोकार मन्त्र के जीवट्ठाण के आदि में अनिबद्ध मंगल होने के सम्बन्ध का वक्तव्य मुझे बिलकुल निराधार प्रतीत होता है, क्योंकि वह प्राचीन प्रतियों के उपलब्ध पाठ एवं आचार्य वीरसेन की टीका की युक्तियों के सर्वथा विरुद्ध है। इस सम्बन्ध में 'षट्खण्डागम', भाग २ की भूमिका के पृ. ३३ आदि पर मेरा ‘णमोकार मन्त्र के आदि कर्ता' शीर्षक लेख देखें। १. "इदं पुण जीवट्ठाणं णिबद्धमंगलं। यत्तो 'इमेसिं चोद्दसण्हं जीवसमासाणं' इदि एदस्स सुत्तस्सादीए णिबद्ध ‘णमो अरिहंताणं' इच्चादि देवदाणमोक्कारदसणादो।" -ध. टी., पृ. ४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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