Book Title: Mahabandho Part 1
Author(s): Bhutbali, Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 13
________________ द्वितीय आवृत्ति का प्रधान-सम्पादकीय हर्ष का विषय है कि उन्नीस वर्षों के पश्चात् 'महाबन्ध' के प्रथम भाग की द्वितीय आवृत्ति पाठकों के हाथ पहुँच रही है। संयोग की बात है कि इससे पूर्व सन् १६५८ में उधर 'षट्खण्डागम' के प्रथम पाँच खण्ड सोलह भागों में पूर्ण प्रकाशित हो गये और इधर छठा खण्ड भी सात भागों में पूर्ण प्रकाशित हो गया । 'महाबन्ध' की मूल प्रति के प्रारम्भ में २७ पत्रों में जो 'संतकम्म पंजिका' पायी गयी थी, उसका भी सम्पादन करके 'षट्खण्डागम' के १५ वें भाग के परिशिष्ट रूप ११ पृष्ठों में प्रकाशन कर दिया गया है। पाठक देखेंगे कि उक्त समस्त भागों में हमने प्रत्येक भाग के विषय का शास्त्रीय परिचय देने का व उसका वैशिष्ट्य बतलाने का प्रयत्न किया है। 'महाबन्ध' के अन्य भागों में भी यही किया गया है। तदनुसार प्रस्तुत भाग के सम्पादक से भी यही अपेक्षा की जाती थी कि वे इस भाग के विषय का शास्त्रीय परिचय प्रस्तुत करें और उन गूढ़ रहस्यों को सामने लाएँ जो इस महान् आगम की विशेषता हो । किन्तु उन्होंने वैसा न कर अपनी प्रस्तावना में ऐसी चर्चाएँ की हैं जिनका इस भाग से लेश मात्र भी सम्बन्ध नहीं है; जैसे गुरु-परम्परा व प्रशस्ति-परिचय व मंगल चर्चा । यथार्थतः प्रस्तुत ग्रन्थ में कोई मंगलाचरण नहीं है। 'षट्खण्डागम' के प्रथम व तृतीय खण्डों के प्रारम्भ में मंगल आया है, वहाँ प्रस्तावनाओं में उन पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। इनके सम्बन्ध में अपनी धारणाओं व कल्पनाओं का नहीं, किन्तु धवलाकार वीरसेन स्वामी के अभिमत का विशेष महत्त्व है। उन्होंने णमोकार मन्त्र को निबद्ध मंगल और ‘णमो जिणाणं' आदि को अनिबद्ध मंगल कहा है। इसी से फलित होनेवाली व्यवस्था पर विवेकपूर्वक ध्यान देना योग्य है। कर्मबन्ध मीमांसा पर विद्वान् सम्पादक ने ३५ से ८५ तक पचास पृष्ठ लिखे हैं । किन्तु वह सब सामान्य चर्चा है और प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रतिपादन का वहाँ लेशमात्र भी परिचय नहीं है। इसके लिए सम्पादक से बहुत आग्रह किया गया, किन्तु उन्होंने प्रस्तावना में कोई हेरफेर करना स्वीकार नहीं किया। उन्होंने इस संस्करण के सम्बन्ध यह तो कहा कि १७ वर्ष के शास्त्राभ्यास के फलस्वरूप अनेक बातें परिवर्तन तथा संशोधन योग्य लगीं तथा सहारनपुर निवासी नेमीचन्दजी व रतनचन्दजी ने अनेक महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये । किन्तु यह बतलाने की कृपा नहीं की कि वे संशोधन कहाँ किस प्रकरण में कैसे किये गये हैं । दो-चार संशोधन भी बतला दिये जाते, तो उनसे पाठ संशोधन सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ प्राप्त होतीं । अस्तु, हम विद्वान् सम्पादक के अनुगृहीत हैं कि उन्होंने ग्रन्थ का यह द्वितीय संस्करण प्रस्तुत किया । ग्रन्थमाला अधिकारियों को भी धन्यवाद कि उन्होंने ग्रन्थ को द्वितीय बार भी सुन्दरता से प्रकाशित कराया। जबलपुर २६-६-६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only हीरालाल जैन आ. ने. उपाध्ये प्रधान सम्पादक www.jainelibrary.org

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