Book Title: Madhyakalin Hindi Sahitya me Varnit Sadguru Satsang ki Mahtta
Author(s): Pushpalata Jain
Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 5
________________ - गुरू के इस महत्व को समझकर ही साधक कवियों मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों ने भी सत्संग का ने गुरू के सत्संग को प्राप्त करने की भावना व्यक्त ऐसा ही महत्व दिखाया है । बनारसीदास ने तुलसी के की है। परमात्मा से साक्षात्कार करानेवालाही समान सत्संगति के लाभ गिनाये हैंसदगुरू है । सत्संग का प्रभाव ऐसा होता है कि वह कुमति निकंद होय महा मोह मंद होय; मजीठ के समान दूसरों को अपने रंग में रंग लेता है। जगमगै सुयश विवेक जगै हियसों । काग भी हंस बन जाता है। रैदास के जन्म-जन्म के नीति को दिठाब होय विनैको बढ़ाव होय; पाश कट जाते हैं । मीरा सत्संग पाकर ही हरि चर्चा उपजे उछाह ज्यों प्रधान पद लिये सों ।। करना चाहती हैं । सत्संग से दुष्ट भी वैसे ही सुधर धर्म को प्रकाश होय दुर्गति को नाश होय; जाते हैं जैसे पारस के स्पर्श से कुधातु लोहा भी सुवर्ण बरते समाधि ज्यों पियूष रस पियेसों । बन जाता है । इसलिए सूर दुष्ट जनों की संगति से तोष. परि पूर होय, दोष दृष्टि दूर होय, दूर रहने के लिए प्रेरित करते हैं । एते गून होहिं सत-संगति के कियेसीं ॥2 35. भाई कोई सतगुरू संत कहाव, ननन अलख लखावै"-कबीर, भक्ति काव्य में रहस्यवाद, पृ. 146. 36. दरिया संगत साधु की, सहज पलट अंग । जैसे संग मजीठ के कपड़ा होय सुरंग ॥ दरिया 8, संत वाणी संग्रह, भाग 1, पृ 129... 37. सहजो संगत साध की काग हंस हो जाय । सहजोबाई, वही पृ. 158. .. 38. कह रैदास मिले निजदास, जनम-जनम के काटे पास-रैदास वानी, पृ.32. 39. तज कुसंग सतसंग बैठ नित, हरि चर्चा सुण लीजो-संतवाणी संग्रह, भाग 2, पृ. 77. 40. जलचर थलचर नभचर नाना, जे जड़ चेतन जीव जहाना । मीत कीरति गति भूमि मिलाई, जब जेहि जतन जहाँ जेहि पाई । 'जो जानव सतसंग प्रभाऊ, लोकहुँ वेद न आन उपाऊ। बिनु सतसग विवेक न होई, राम कृपा बिनु सुलभ न सोई। सतसंगति मुद मंगल मूला, सोइ फल सिधि सब साधन फूला ॥ सठ सुधरहिं सतसंगति पाई, पारस परस कुधात सुहाई । तुलसीदास-रामचरितमानस, बालकाण्ड 2-5. 41. तजी मन हरि विमुखन को संग। जिनके संग कुमति उपजत है परत भजन में भंग । कहा होत पय पान कराये विष नहिं तजत भुजंग। . कागहि कहा कपूर चुगाए स्वान न्हवाए गंग । सूरदास खल कारी कामरि, चढ़े न दूजो रंग ॥ सूरसागर, पृ. 176. 42. बनारसी विलास, भाषासूक्त मुक्तावली, पृ. 50. २२८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 3 4 5 6 7