Book Title: Madhyakalin Hindi Sahitya me Varnit Sadguru Satsang ki Mahtta
Author(s): Pushpalata Jain
Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 4
________________ का हितकारी है.128 मिथ्यात्वी और अज्ञानी उसे ग्रहण "जो तजं विषे की आसा, द्यानत पावै सिववासा । नहीं करते पर सम्यग्दृष्टि जीव उसका आश्रय लेकर यह सदगुरू सीख बताई, काहूँ विरलै के जिय जाई" . भव से पार हो जाते हैं। एक अन्यत्र स्थल पर बनारसी दास ने उसे "संसार सागर तरन तारन गरू के रूप में अपने सदगुरू से पथप्रदर्शन मिला । जहाज विशेखिये" कहा है। 30 सन्तों ने गुरु की महिमा को दो प्रकार से व्यक्त मीरा ने "सगुरा" और 'निगुरा' के महत्व को किया है-सामान्य गुरू का महत्व और किसी विशिष्ट ष्टि में रखते हुए कहा कि सगरा को अमत की प्राप्ति व्यक्ति का महत्व । कबीर और नामक ने प्रथम प्रकार होती है और निगुरा को सहज जल भी पिपासा की को अपनाया तथा सहजोबाई आदि अन्य.सन्तों ने प्रथम तृति के लिए उपलब्ध नहीं होता। सदगरू के मिलन प्रकार के साथ ही द्वितीय प्रकार को स्वीकार किया से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है। रूपचन्द का है। जैन सन्तों ने भी इन दोनों प्रकारों को अपनाया. कहना कि सदगुरू की प्राप्ति बड़े सौभाग्य से होती है। है । अर्हन्त आदि सदगुरुओं का तो महत्वगान प्रायः सभी इसलिए वे उसकी प्राप्ति के लिए अपने इष्ट से जैनाचार्यों ने किया है पर कुशलाभ जैसे कुछ भक्तों ने अभ्यर्थना करते हैं 12 धानतराय को अपने लौकिक गुरुओं की भी आराधना की है।" - 28. ज्यों वरषा वरष समै मेघ अखंडित धार । त्यो सदगुरू वानी खिरे, जगत जीव हितकार ॥ नाटक समयसार, 6, पृ. 338. 29. वही, साध्यसाधक द्वार, 15.16, पृ. 342-3. 30. बनारसीविलास, भाषासूक्त मुक्तावली, 14, पृ. 24. 31. सतगुरू मिलिया सुज पिछानी ऐसा ब्रह्म मैं पाती। सगुरा सूरा अमृत पीवे निगुरा प्यासा जाती। मगन भया मेरा मन सुख में गोविन्द का गुणगाती। मीरा कहे इक आस आपकी औरों सू सकुचाती ॥ संतवाणी संग्रह, भाग 2, पृ. 69. 32. अब मोहि सदगुरू कहि समझायो, तो सो प्रभु बड़े भागनि पायो। रूपचन्द नटु विनवे तोही, अब दयाल पूरी दै मोही ॥ हिन्दी पद संग्रह, पृ. 49. 33. वही, पृ. 127; तुलनार्थ देखिये मन वचकाय जोग थिर करके त्यागो विषय कषाई । द्यानत स्वर्ग मोक्ष सुखदाई सतगुरू सीख बताई ॥ वही, पृ. 133. 34. हिन्दी न भक्ति काव्य और कवि, पृ. 117. २२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7