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- मराकालीन हिन्दी साहित्य में affid
सतगुरु-मसंग की महत्ता
डा० श्रीमती पुष्पलता जैन
साधना की सफलता और साध्य की प्राप्ति के जो कोई भी कल्याणकारी उपदेश प्राप्त होते हैं वे सब लिए सदगूरू का सत्संग प्रेरणा का स्रोत रहता है। गुरूजनों की विनय से ही होते हैं। इसलिये उत्तराध्यगुरू का उपदेश पापनाशक, कल्याणकारक, शान्ति और यन में गुरू और शिष्यों के पारम्परिक कर्त्तव्यों का आत्मशक्ति करने वाला होता है। उसके लिए श्रमण विवेचन किया गया है । इसी सन्दर्भ में मपात्र और और वैदिक साहित्य में आचार्य, बुद्ध, पूज्य, धर्माचार्य, कुपात्र के बीच भेदक रेखा भी खींची गई है। उपाध्याय, भन्ते, भदन्त, सदगुरू, गुरू आदि शब्दों का पर्याप्त प्रयोग हआ है। जैनाचार्यों ने अर्हन्त और सिद्ध जैन साधक मुनि रामसिंह और आनंदतिलक ने को भी गुरू माना है और विविध प्रकार से गुरूभक्ति गुरू की महत्ता स्वीकार की है और कहा है कि गुरू प्रदर्शित की है। इहलोक और परलोक में जीवों को की कृपा से ही व्यक्ति मिथ्यात्व रागादि के बन्धन से
उत्तराध्ययन, 1.27. 2. जे केइ वि उवएसा, इह पर लोर सुहावहा संति ।
विणएण गुरुजणाणं सव्वे पाउणइ ते पुरिसा ॥ वसुनन्दि-थावकाचार, 339; तुलनाथं देखिये-धेरंड __ संहिता, 3,12-14.
उत्तराध्ययन, प्रथम स्कन्ध । श्वेताश्वेतरोपनिषद् 3-6,22; आदि पर्व, महाभारत, 131.34-58. ताम कुतित्थई परिभमई धुत्तिम ताम करेइ । गुरुहु पमाएँ जाम णवि अप्पा देउ मुणेइ॥ योगसार, 41, पृ. 380. गुरु दिण यरु गुरू हिमकिरण गुरू दीवउ गुरू देउ । अप्पापरहं परंपरहं जो दरिसावइ भेउ ॥ दोहापाहड, 1 गरू जिणवरू गुरू सिद्ध सिउ, गुरू रयणतय सारु । सो दरिसावइ अप्प परु आणंदा ! भव जल पावइ पारु ॥ आणंदा, 36.
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मुक्त होकर भेद विज्ञान कर अपनी आत्मा के विशुद्ध रूप की जान पाता है। इसलिए उन्होंने गुरु की वन्दना की है। आनन्दतिलकं भी गुरू को जिनवर सिद्ध, शिव और स्व-पर का भेद दर्शानेवाला मानते हैं । जैन साधकों के ही समान कबीर ने भी गुरू को ब्रह्म (गोविन्द) से भी श्रेष्ठ माना है। उसी की कृपा से गोविन्द के दर्शन सम्भव हैं ।" रागादिक विकारों को दूर कर आत्मा ज्ञान से तभी प्रकाशित होती है जब गुरू की प्राप्ति हो जाती है।" उनका उपदेश सदावहारक और पथ प्रदर्शक रहता है।" गुरु के अनुग्रह एवं कृपा दृष्टि से शिष्य का जीवन सफल हो जाता है। सदगुरू स्वर्णकार की भाँति शिष्य के मन से दोष और दुर्गुणों को दूर कर उसे तप्त स्वर्ण की भांति खरा और निर्मल बना देता है 110 सूफी कवि जायसी के मन में पीर (गुरु) के प्रति श्रद्धा दृष्टव्य होती है। वह उनका प्रेम का दीपक है ।" हीरामन तोता स्वयं गुरु का रूप है। और संसार को उसने शिष्य बना लिया है।" उनका विश्वास है कि गुरु साधक के हृदय में विरह की चिन गारी प्रक्षिप्त कर देता है और सच्चा साधक शिष्य
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गुरू की दी गुरू की दी हुई उस वस्तु को सुलगा देता है।" जायसी के भावमूलक रहस्यवाद का प्राणभूत तत्व प्रेम है और यह प्रेम पीर की महान् देन है । पद्मावत के स्तुतिखण्ड में उन्होंने लिखा है-
सूर की गोपियाँ तो बिना गुरु के योग सीख ही नहीं सकीं। वे उद्धव से मथुरा ले जाने के लिए कहती हैं जहाँ जाकर वे गुरू श्याम से योग का पाठ ग्रहण
सैयद असरफ पीर पियारा, जेहि मोहि पंथ दीन्ह उजियारा । लेसा हिए प्रेम कर दिया, उठी जोति मा निरमल हीया । 15
कर सकें । 10 भक्ति-धर्म में सूर ने गुरू की आवश्यकता अनिवार्य बतलाई है और उसका उच्च स्थान माना है ।
सदगुरू का उपदेश ही हृदय में धारण करना चाहिए क्योंकि वह सकलभ्रम का नाशक होता है
गुरू गोविन्द दोक गड़े काके लागू पायें।
बलिहारी गुरु आपकी जिन्ह गोविन्द दियो दिखाय ॥ संत वाणी संग्रह भाग 1, पृ. 2.
बलिहारी गुरु आपने यौं हाड़ो के बार ।
जिनि मानिष तं देवता करत न लागी बार || कबीर ग्रंथावली, पृ. 1.
संस खाया सकल जग, संसा किनहूं न खद्ध, वही, पृ. 2-3.
सदगुरू को उपदेश हृदयर्धारि, जिन भ्रम सकल निवरायौ ॥2"
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10. वही, पृ. 4 ।
11. जायसी ग्रन्थमाला पृ. 7 ।
12. गुरू सुआ जेइ पंथ देखावा । बिनु गुरु जगत को निरगुन पावा || पद्मावत.
13. गुरू होड आय, कीन्ह उचेला जायसी ग्रन्थावली, पु. 33.
14. गुरू विरह चिनगी जो मेला । जो सुलगाइ लेइ सो चेला ॥। वही, पु. 51.
15. जायसी ग्रन्थावली, स्तुतिखण्ड, पृ. 7.
16. जोगविधि मधुबन सिखिहैं जाइ। ......
बिनु गुरू निकट संदेसनि कैसे, अवगाह्यौ जाइ । सूरसागर (सभा) पद 4328. 17. वही पद 336 1
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सूर गुरू महिमा का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं कबीर के समान ही तुलसी ने भी संसार-सागर कि हरि और गुरू एक ही स्वरूप हैं और गुरू के प्रसन्न को पार करने के लिए गुरू की स्थिति अनिवार्य मानी होने से हरि प्रसन्न होते हैं। गुरू के बिना सच्ची कृपा है। साक्षात् ब्रह्मा और विष्णु के समान भी, बिना करनेवाला कौन है ? गुरू भवसागर में डूबते हुए को गुरू के संसार से मुक्त नहीं हो सकता । सदगुरू बचानेवाला और सत्पथ का दीपक है। सहजोबाई भी ही एक ऐसा कर्णधार है जो जीव के दुर्लभ कामों कबीर के समान गुरू को भगवान से भी बड़ा मानती को भी सुलभ कर देता है - हैं।19 दादू लौकिक गुरू को उपलक्ष्य मात्र मानकर असली गरू भगवान को मानते हैं नानक भी कबीर
करनधार सदगुरू दृढ़ नावा, के समान गुरू की ही वलिहाने मानते हैं जिसने ईश्वर
दुर्लभ साज सुलभ करि पावा। को दिखा दिया अन्यथा गोविन्द का मिलना कठिन था । सुन्दरदास भी "गुरूदेव बिना नहीं मारग सुझय"
मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों ने भी गुरू को कहकर इसी तथ्य को प्रकट करते हैं। तुलसी ने भी
इससे कम महत्व नहीं दिया । उन्होंने तो गुरू को वही मोह भ्रम दूर होने और राम के रहस्य को प्राप्त करने
स्थान दिया है जो अर्हन्त को दिया है। पंच परमेष्ठियों में गुरू को ही कारण माना है। रामचरित मानस के
में सिद्ध को देव माना और शेष चारों को गुरू रूप प्रारम्भ में ही गुरू वन्दना करके उसे मनुष्य के रूप में
स्वीकारा है। ये सभी 'दुरित हरन दुखदारिद दोन" करुणासिन्धु भगवान माना है। गुरू का उपदेश अज्ञान
के कारण है । कबीरादि के समान कुशललाम ने के अंधकार को दूर करने के लिए अनेक सूर्यो के
शाश्वत सुख की उपलब्धि को गुरू का प्रसाद कहा समान है
है-"श्री गुरू पाय प्रसाद सदा सुख सपंजइ रे"26 बदऊँ गुरूपद कंज कृपासिन्धु नररूप हरि। रूपचन्द ने भी यही माना । बनारसी दास ने सदमहामोह तम पुज जासु वचन रवि कर निकर ॥ गुरू के उपदेश को मेघ की उपमा दी है जो सब जीवों
18. सूरसागर, पद 416-417; सूर और उनका साहित्य, 19. परमेसुर से गुरू बड़े गावत वेद पुरान--संतसुधासार, पृ. 182. 20. आचार्य क्षितिमोहन सेन दादू और उनकी धर्म साधना, पाटल सन्त विशेषांक भाग 1, पृ. 112. 21. बलिहारी गुरू आपण्ये द्यो हाड़ी के बार।
जिनि मानिषतें देवता, करत न लागी बार ॥ गुरू ग्रंथ साहिब, म 1, आसादीवार, पृ-1 22. सुन्दरदास ग्रन्थावली, प्रथम खण्ड, पृ. 8. 23. रामचरितमानस, बालकाण्ड 1-5 24. गुरू बिनु भवनिधि तरइ न कोई भी विरंचि संकर सम होई ।
बिन गुरू होहि कि ज्ञान-ज्ञान कि होई विराग बिनु । रामचरितमानस उत्तरकाण्ड, 93. 25. वही, उत्तरकाण्ड, 43/4. 26. बनारसी बिलास, पंचपद विधान, 1-10. पृ. 162-163. 27. हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि, पृ. 117.
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का हितकारी है.128 मिथ्यात्वी और अज्ञानी उसे ग्रहण "जो तजं विषे की आसा, द्यानत पावै सिववासा । नहीं करते पर सम्यग्दृष्टि जीव उसका आश्रय लेकर यह सदगुरू सीख बताई, काहूँ विरलै के जिय जाई" . भव से पार हो जाते हैं। एक अन्यत्र स्थल पर बनारसी दास ने उसे "संसार सागर तरन तारन गरू के रूप में अपने सदगुरू से पथप्रदर्शन मिला । जहाज विशेखिये" कहा है। 30
सन्तों ने गुरु की महिमा को दो प्रकार से व्यक्त मीरा ने "सगुरा" और 'निगुरा' के महत्व को किया है-सामान्य गुरू का महत्व और किसी विशिष्ट ष्टि में रखते हुए कहा कि सगरा को अमत की प्राप्ति व्यक्ति का महत्व । कबीर और नामक ने प्रथम प्रकार होती है और निगुरा को सहज जल भी पिपासा की को अपनाया तथा सहजोबाई आदि अन्य.सन्तों ने प्रथम तृति के लिए उपलब्ध नहीं होता। सदगरू के मिलन प्रकार के साथ ही द्वितीय प्रकार को स्वीकार किया से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है। रूपचन्द का है। जैन सन्तों ने भी इन दोनों प्रकारों को अपनाया. कहना कि सदगुरू की प्राप्ति बड़े सौभाग्य से होती है। है । अर्हन्त आदि सदगुरुओं का तो महत्वगान प्रायः सभी इसलिए वे उसकी प्राप्ति के लिए अपने इष्ट से जैनाचार्यों ने किया है पर कुशलाभ जैसे कुछ भक्तों ने अभ्यर्थना करते हैं 12 धानतराय को
अपने लौकिक गुरुओं की भी आराधना की है।"
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28. ज्यों वरषा वरष समै मेघ अखंडित धार ।
त्यो सदगुरू वानी खिरे, जगत जीव हितकार ॥ नाटक समयसार, 6, पृ. 338. 29. वही, साध्यसाधक द्वार, 15.16, पृ. 342-3. 30. बनारसीविलास, भाषासूक्त मुक्तावली, 14, पृ. 24. 31. सतगुरू मिलिया सुज पिछानी ऐसा ब्रह्म मैं पाती।
सगुरा सूरा अमृत पीवे निगुरा प्यासा जाती। मगन भया मेरा मन सुख में गोविन्द का गुणगाती।
मीरा कहे इक आस आपकी औरों सू सकुचाती ॥ संतवाणी संग्रह, भाग 2, पृ. 69. 32. अब मोहि सदगुरू कहि समझायो,
तो सो प्रभु बड़े भागनि पायो। रूपचन्द नटु विनवे तोही,
अब दयाल पूरी दै मोही ॥ हिन्दी पद संग्रह, पृ. 49. 33. वही, पृ. 127; तुलनार्थ देखिये
मन वचकाय जोग थिर करके त्यागो विषय कषाई ।
द्यानत स्वर्ग मोक्ष सुखदाई सतगुरू सीख बताई ॥ वही, पृ. 133. 34. हिन्दी न भक्ति काव्य और कवि, पृ. 117.
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- गुरू के इस महत्व को समझकर ही साधक कवियों मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों ने भी सत्संग का ने गुरू के सत्संग को प्राप्त करने की भावना व्यक्त ऐसा ही महत्व दिखाया है । बनारसीदास ने तुलसी के की है। परमात्मा से साक्षात्कार करानेवालाही समान सत्संगति के लाभ गिनाये हैंसदगुरू है । सत्संग का प्रभाव ऐसा होता है कि वह
कुमति निकंद होय महा मोह मंद होय; मजीठ के समान दूसरों को अपने रंग में रंग लेता है।
जगमगै सुयश विवेक जगै हियसों । काग भी हंस बन जाता है। रैदास के जन्म-जन्म के
नीति को दिठाब होय विनैको बढ़ाव होय; पाश कट जाते हैं । मीरा सत्संग पाकर ही हरि चर्चा
उपजे उछाह ज्यों प्रधान पद लिये सों ।। करना चाहती हैं । सत्संग से दुष्ट भी वैसे ही सुधर
धर्म को प्रकाश होय दुर्गति को नाश होय; जाते हैं जैसे पारस के स्पर्श से कुधातु लोहा भी सुवर्ण बरते समाधि ज्यों पियूष रस पियेसों । बन जाता है । इसलिए सूर दुष्ट जनों की संगति से तोष. परि पूर होय, दोष दृष्टि दूर होय, दूर रहने के लिए प्रेरित करते हैं ।
एते गून होहिं सत-संगति के कियेसीं ॥2
35. भाई कोई सतगुरू संत कहाव, ननन अलख लखावै"-कबीर, भक्ति काव्य में रहस्यवाद, पृ. 146. 36. दरिया संगत साधु की, सहज पलट अंग ।
जैसे संग मजीठ के कपड़ा होय सुरंग ॥ दरिया 8, संत वाणी संग्रह, भाग 1, पृ 129... 37. सहजो संगत साध की काग हंस हो जाय । सहजोबाई, वही पृ. 158. .. 38. कह रैदास मिले निजदास, जनम-जनम के काटे पास-रैदास वानी, पृ.32. 39. तज कुसंग सतसंग बैठ नित, हरि चर्चा सुण लीजो-संतवाणी संग्रह, भाग 2, पृ. 77. 40. जलचर थलचर नभचर नाना, जे जड़ चेतन जीव जहाना ।
मीत कीरति गति भूमि मिलाई, जब जेहि जतन जहाँ जेहि पाई । 'जो जानव सतसंग प्रभाऊ, लोकहुँ वेद न आन उपाऊ। बिनु सतसग विवेक न होई, राम कृपा बिनु सुलभ न सोई। सतसंगति मुद मंगल मूला, सोइ फल सिधि सब साधन फूला ॥
सठ सुधरहिं सतसंगति पाई, पारस परस कुधात सुहाई । तुलसीदास-रामचरितमानस, बालकाण्ड 2-5. 41. तजी मन हरि विमुखन को संग।
जिनके संग कुमति उपजत है परत भजन में भंग । कहा होत पय पान कराये विष नहिं तजत भुजंग। . कागहि कहा कपूर चुगाए स्वान न्हवाए गंग ।
सूरदास खल कारी कामरि, चढ़े न दूजो रंग ॥ सूरसागर, पृ. 176. 42. बनारसी विलास, भाषासूक्त मुक्तावली, पृ. 50.
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द्यानवराय कबीर के समान उन्हें कृतकृत्य मानते हैं जिन्हें सत्संगति प्राप्त हो गयी है। भूधरदास सत्संगति को दुर्लम मानकर नरभव को सफल बनाना चाहते हैं--
प्रभु गुन गाय रे, यह औसर फेर न पाय रे ।। मानुष भब जोग दुहेला, दुर्लभ सतसगति मेला। सब बात भली बन आई, अर्हन्त भजो रे भाई ॥10॥
चन्द्र क्रांति मनि प्रगट उपल सौ, जल ससि देख झरत सरसाई ।। लट घट पलटि होत षटपद सी, जिन को साथ भ्रमर को - थाई । विकसत कमल निरखि दिनकर कों, लोह कनक होय पारस छाई ।। बोझ तिरै संजोग नाव के, नाग दमनि लखि नाग न खाई । पावक तेज प्रचड महाबल, जल परता सीतल हो जाई ।। संग प्रताप भयंगम जै है, चंदन शीतल तरल पटाई। इत्यादिक ये बात घणेरी, कौलों ताहि कहीं जु बढ़ाई ॥
दरिया ने सत्संगति मजीठ के समान बताया और नवलराम ने उसे चन्द्रकान्तमणि जैसा बताया है। कवि ने और भी दृष्टान्त देकर सत्संगति को सूखदायी कहा है
सतसंगति जग में सुखदायी । देव रहित दूषण गुरू साँचो, धर्म दया निश्चै चितलाई ॥
सुक अति
मैना संगति नर की करि, परवीन वचनता पाई।
इसी प्रकार कविवर छत्रपति ने भी संगति का महात्म्य दिखाते हुए उसके तीन भेद किये हैं-उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य 146
43. कर-कर सपत संगत रे भाई ॥
पान परत नर नरपत कर सो तो पाननि सौ कर असनाई ।। चन्दन पास नींव चन्दन है काठ चढयो लोह तरजाई। पारस परस कुधात कनक व बूद उर्द्ध पदवी पाई ॥ करई तोवर संगति के फल मधुर मधुर सुर कर गाई।। विष गुन करत संग औषध के ज्यों बच खात मिटै वाई ।। दोष घटै प्रगटै गुन मनसा निरमल ह तज चपलाई।
द्यानत धन्न धन्न जिनके घट सत संगति सरधाई॥ हिन्दी पद संग्रह, पृ. 137. 44. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 155. 45. वही, पृष्ठ 185-86. 46. देखो स्वांति ब्रद सीप मुख परी मोती होय :
केलि में कपूर बांस माहि बंसलोचना। ईख में मधुर पुनि नीम में कटुक रस; पन्नग के मुख परी होय प्रान मोचना ।।
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________________ इस प्रकार मध्यकालीन हिन्दी जैन साधकों ने सन्देह सत्संगति का प्रभाव है। यहां यह दृष्टव्य है कि विभिन्न उपमेयों के आधार पर सदगुरू और उनकी जैनेतर कवियों ने सत्संगति के माध्यम से दर्शन की सत्संगति का सुन्दर चित्रण किया है। ये उपमेय एक- बात अधिक नहीं कि जबकि जैन कवियों ने उसे दर्शन दसरे को प्रभावित करते हुए दिखाई देते हैं जो नि:- मिश्रित रूप में अभिव्यक्त किया है। अंबुज दलमिपरि परी मोती सम दिप, सपन तबेलै परी नस कछु सोचना। उतकिस्ट मध्यम जघन्य जैसी संग मिले, तैसो फल लहै मति पोच मति पोचना 1114711 मलय सुवास देखो निबादि सुगंध करै, पारस पखान लोह कंचन करत है। रजक प्रसंग पट समलतें श्वेत करै, भेषज प्रसंग विष रोगन हरत है। पंडित प्रसंग जन मूरखतें बुध कर, काष्ठ के प्रसंग लोह पानी में तरत है। जसो जाको संग ताकी तेसो फल प्रापति है, सज्जन प्रसंग सब दुख निरवत है / / 14811 मन मोदन पंचशती, पृ. 70-71. 230