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सूर गुरू महिमा का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं कबीर के समान ही तुलसी ने भी संसार-सागर कि हरि और गुरू एक ही स्वरूप हैं और गुरू के प्रसन्न को पार करने के लिए गुरू की स्थिति अनिवार्य मानी होने से हरि प्रसन्न होते हैं। गुरू के बिना सच्ची कृपा है। साक्षात् ब्रह्मा और विष्णु के समान भी, बिना करनेवाला कौन है ? गुरू भवसागर में डूबते हुए को गुरू के संसार से मुक्त नहीं हो सकता । सदगुरू बचानेवाला और सत्पथ का दीपक है। सहजोबाई भी ही एक ऐसा कर्णधार है जो जीव के दुर्लभ कामों कबीर के समान गुरू को भगवान से भी बड़ा मानती को भी सुलभ कर देता है - हैं।19 दादू लौकिक गुरू को उपलक्ष्य मात्र मानकर असली गरू भगवान को मानते हैं नानक भी कबीर
करनधार सदगुरू दृढ़ नावा, के समान गुरू की ही वलिहाने मानते हैं जिसने ईश्वर
दुर्लभ साज सुलभ करि पावा। को दिखा दिया अन्यथा गोविन्द का मिलना कठिन था । सुन्दरदास भी "गुरूदेव बिना नहीं मारग सुझय"
मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों ने भी गुरू को कहकर इसी तथ्य को प्रकट करते हैं। तुलसी ने भी
इससे कम महत्व नहीं दिया । उन्होंने तो गुरू को वही मोह भ्रम दूर होने और राम के रहस्य को प्राप्त करने
स्थान दिया है जो अर्हन्त को दिया है। पंच परमेष्ठियों में गुरू को ही कारण माना है। रामचरित मानस के
में सिद्ध को देव माना और शेष चारों को गुरू रूप प्रारम्भ में ही गुरू वन्दना करके उसे मनुष्य के रूप में
स्वीकारा है। ये सभी 'दुरित हरन दुखदारिद दोन" करुणासिन्धु भगवान माना है। गुरू का उपदेश अज्ञान
के कारण है । कबीरादि के समान कुशललाम ने के अंधकार को दूर करने के लिए अनेक सूर्यो के
शाश्वत सुख की उपलब्धि को गुरू का प्रसाद कहा समान है
है-"श्री गुरू पाय प्रसाद सदा सुख सपंजइ रे"26 बदऊँ गुरूपद कंज कृपासिन्धु नररूप हरि। रूपचन्द ने भी यही माना । बनारसी दास ने सदमहामोह तम पुज जासु वचन रवि कर निकर ॥ गुरू के उपदेश को मेघ की उपमा दी है जो सब जीवों
18. सूरसागर, पद 416-417; सूर और उनका साहित्य, 19. परमेसुर से गुरू बड़े गावत वेद पुरान--संतसुधासार, पृ. 182. 20. आचार्य क्षितिमोहन सेन दादू और उनकी धर्म साधना, पाटल सन्त विशेषांक भाग 1, पृ. 112. 21. बलिहारी गुरू आपण्ये द्यो हाड़ी के बार।
जिनि मानिषतें देवता, करत न लागी बार ॥ गुरू ग्रंथ साहिब, म 1, आसादीवार, पृ-1 22. सुन्दरदास ग्रन्थावली, प्रथम खण्ड, पृ. 8. 23. रामचरितमानस, बालकाण्ड 1-5 24. गुरू बिनु भवनिधि तरइ न कोई भी विरंचि संकर सम होई ।
बिन गुरू होहि कि ज्ञान-ज्ञान कि होई विराग बिनु । रामचरितमानस उत्तरकाण्ड, 93. 25. वही, उत्तरकाण्ड, 43/4. 26. बनारसी बिलास, पंचपद विधान, 1-10. पृ. 162-163. 27. हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि, पृ. 117.
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