Book Title: Leshya dwara Vyaktitva Rupantaran Author(s): Shanta Jain Publisher: Z_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf View full book textPage 2
________________ लेश्या द्वारा व्यक्तित्व रूपान्तरण कर्मशास्त्रीय भाषा में लेश्या आस्रव और संवर से जुड़ी है। आस्रव का मतलब है दोषों को भीतर आने देने का रास्ता। जब तक व्यक्ति का मिथ्या दृष्टिकोण रहेगा, आकांक्षाएं प्रबल रहेंगी, बुद्धि-विवेक सोया रहेगा, मन, वचन और शरीर पर नियन्त्रण नहीं होगा, रागद्वेष की भावना से मुक्त नहीं बन पाएगा, तब तक वह प्रतिक्षण कर्म-संस्कारों का संचय करता रहेगा। आगमों में लेश्या के लिये एक शब्द आया है -“कर्म निर्जर"१ लेश्या कर्म का है। कर्म का अनुभाव-विपाक होता रहता है। इसलिये जब तक आस्रव नहीं रुकेगा तब तक लेश्याएँ शुद्ध नहीं होंगी, लेश्या शूद्ध नहीं होगी तो हमारे भाव, संस्कार, विचार और आचरण भी शुद्ध नहीं होंगे। इसलिये संवर की जरूरत है। संवर भीतर आते हुए दोष प्रवाह को रोक देता है। बाहर से अशुभ पुद्गलों का ग्रहण जब भीतर नहीं जाएगा, राग-द्वेष नहीं उभरेंगे, तब कषाय की तीव्रता मन्द होगी, कर्म बन्ध की प्रक्रिया रुक जाएगी। हम दो व्यक्तित्वों से जुड़े हैं-१. स्थूल व्यक्तित्व, २. सूक्ष्म व्यक्तित्व। इस भौतिक शरीर पौद्गलिक शरीर से जो हमारा सम्बन्ध है, वह स्थूल व्यक्तित्व है। इसको जानने के साधन हैं- इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि । पर सूक्ष्म व्यक्ति को इन्द्रिय, मन एवं बुद्धि द्वारा नहीं जाना जा सकता। जैन दर्शन में स्थूल शरीर को औदारिक और सूक्ष्म शरीर को तैजस तथा कार्मण शरीर कहा है । आधुनिक योग साहित्य में स्थूल शरीर को फिजिकल बॉडी (Physical body) और सूक्ष्म शरीर को एथरिक बॉडी (Etheric body) तथा तैजस शरीर को एस्ट्रल बॉडी ( Asteral body ) कार्मण शरीर कहा है। लेश्या दोनों शरीर के बीच सेत का काम करती है। यही वह तत्त्व है जिसके आधार पर व्यक्तित्व का रूपान्तरण, वृत्तियों का परिशोधन और रासायनिक परिवर्तन होता है। लेश्या को जानने के लिये सम्पूर्ण जीवन का विकास क्रम जानना भी जरूरी है। हमारा जीवन कैसे प्रवृत्ति करता है ? अच्छे, बुरे संस्कारों का संकलन कैसे और कहाँ से होता है ? भाव, विचार, आचरण कैसे बनते हैं ? क्या हम अपने आपको बदल सकते हैं ? इन सबके लिये हमें सूक्ष्म शरीर तक पहुँचना होगा। आगम साहित्य में सूक्ष्म व्यक्तित्व से स्थूल व्यक्तित्व तक आने के कई पड़ाव हैं, जिनमें सबसे पहला है-चैतन्य (मूल आत्मा) उसके बाद कषाय का तन्त्र, फिर अध्यवसाय का तन्त्र । यहाँ तक स्थूल शरीर का कोई सम्बन्ध नहीं है। ये केवल तैजस शरीर और कर्म शरीर से ही सम्बन्धित हैं। अध्यवसाय के स्पन्दन जब आगे बढ़ते हैं तब वे चित्त पर उतरते हैं, भावधारा बनती है, जिसे लेश्या कहते हैं । लेश्या के माध्यम से भीतरी कर्म रस का विपाक बाहर आता है तब पहला साधन बनता है, अन्तःस्रावी ग्रन्थि तंत्र । अन्तःस्रावी ग्रन्थियों के जो स्राव हैं वे कर्मों के स्राव से प्रभावित होकर आते हैं। भीतरी स्राव जो रसायन बनकर आता है उसे लेश्या अध्यवसाय से लेकर हमारे सारे स्थूल तंत्र तक यानी अन्तःस्रावी ग्रंथियों और मस्तिष्क तक पहुँचा देती है। ग्रंथियों के हार्मोन्स रक्त १. उत्तराध्ययन-अध्ययन ३४ टीका पृ० ६५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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