Book Title: Leshya dwara Vyaktitva Rupantaran Author(s): Shanta Jain Publisher: Z_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf View full book textPage 8
________________ लेश्या द्वारा व्यक्तित्व रूपान्तरण बंदलाव के लिये हमें इन लेश्याओं का शुद्धीकरण करना होगा। रंग ध्यान द्वारा चैतन्य केन्द्रों को जगाना होगा क्योंकि केन्द्र (चक्र) रंग शक्ति के विशिष्ट स्रोत हैं। प्रत्येक चक्र भौतिक वातावरण और चेतना के उच्च स्तरों में से अपनी विशिष्ट रंग किरणों के माध्यम से प्राण ऊर्जा की विशिष्ट तरंग को शोषित करता है। लेश्या ध्यान में आनन्द केन्द्र पर हरे रंग का, विशुद्धि केन्द्र पर नीले रंग का, दर्शन केन्द्र पर अरुण रंग का, ज्ञान केन्द्र पर पीले रंग का तथा ज्योति केन्द्र पर सफेद रंग का ध्यान किया जाता है। कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं अशुभ हैं इसलिये उन्हीं केन्द्रों पर विशेष रूप से ध्यान किया जाता है जिनसे तैजस, पद्म और शुक्ल लेश्याएं जागती हैं। इसलिये तीन शुभ लेश्याओं का दर्शन केन्द्र, ज्ञान केन्द्र और ज्योति केन्द्र पर क्रमशः लाल, पीला और सफेद रंग का ध्यान किया जाता है । इन तीनों को प्रशस्त रंगों के रूप में स्वीकार किया गया है। तेजोलेश्याः ध्यान तेजोलेश्या का ध्यान जब किया जाता है तो हम दर्शन केन्द्र पर बाल सूर्य जैसे लाल रंग का ध्यान करते हैं। लाल रंग अग्नि तत्त्व से संबंधित है जो कि ऊर्जा का सार है। यह हमारी सारी सक्रियता, तेजस्विता, दीप्ति, प्रवृत्ति का स्रोत है। दर्शन केन्द्र पिच्यूटरी ग्लैण्ड (Pituitarygland) का क्षेत्र है, जिसे मास्टर ग्लैण्डर(Master gland ) कहा जाता है, जो अनेक ग्रंथियों पर नियन्त्रण करती है। पिच्यूटरी ग्लैण्ड सक्रिय होने पर एड्रीनल ग्रंथि नियन्त्रित हो जाती है, जिसके कारण उभरने वाले काम वासना, उत्तेजना, आवेग आदि अनुशासित हो जाते हैं । दर्शन केन्द्र पर अरुण रंग का ध्यान करने से तैजस लेश्या के स्पन्दनों की अनुभूति से अन्तर्जगत् की यात्रा प्रारम्भ होती है । आदतों में परिवर्तन शुरू होता है। मनोविज्ञान बताता है कि लाल रंग से आत्मदर्शन की यात्रा शुरू होती है। आगम कहता है-अध्यात्म की यात्रा तेजोलेश्या से शुरू होती है। इससे पहले कृष्ण, नील व कापोत तीन अशुभ लेश्याएं काम करती हैं, इसलिये व्यक्ति अन्तर्मुखी नहीं बन पाता। तैजस लेश्या/तैजस शरीर जब जगता है तब अनिर्वचनीय आनन्दानुभूति होती है । पदार्थ प्रतिबद्धता छूटती है। मन शक्तिशाली बनता है। ऊर्जा का ऊर्ध्व गमन होता है। आदमी में अनुग्रह विग्रह ( वरदान और अभिशाप ) की क्षमता पैदा होती है। सहज आनन्द की स्थिति उपलब्ध होती है। इसलिये इस अवस्था को “सुखासिका" कहा गया है। आगमों में लिख कि विशिष्ट ध्यान योग की साधना करने वाला एक वर्ष में इतनी तेजोलेश्या को उपलब्ध होता है जिससे उत्कृष्टतम भौतिक सुखों की अनुभूति अतिक्रान्त हो जाती है। उस आनन्द की तुलना किसी भी भौतिक पदार्थ से नहीं की जा सकती। १. आभामण्डल-युवाचार्य महाप्रज्ञ पृ० ८५ २. भगवती १५/२३/७२६ ३. भगवती १४/९/१२/७०७ ४. स्थानांग ४/७० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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