Book Title: Leshya Ek Vishleshan Author(s): Devendramuni Shastri Publisher: Z_Bhanvarlal_Nahta_Abhinandan_Granth_012041.pdf View full book textPage 4
________________ वरण का औदयिक फल है। अतः स्पष्ट है कषायोदय में पर लेश्या भी है, तथापि स्थिति का बन्धन नहीं होता अनुरंजित योग प्रवृत्ति है। (लेश्या) स्थितिपाक में है। प्रश्न है-समुच्छिन्न शुक्ल ध्यान को ध्याते हुए सहायक होती है। चौदहवें गुण स्थान में चार कर्म विद्यमान हैं तथापि वहां गोम्मटसार में आचार्य नेमिचन्द्र ने योग-परिणाम पर लेश्या नहीं है। उत्तर है-जो आत्माएँ कर्म युक्त स्वरूप लेश्या का वर्णन किया है । १७ आचार्य पूज्यपाद हैं उन सभी के कर्म-प्रवाह चालू ही रहें. ऐसा नियम नहीं ने सर्वार्थ सिद्धि में '८ और गोम्मटसार के जीव काण्ड है। यदि इस प्रकार माना जायेगा तो योग परिणाम खण्ड में कषायोदय अनुरंजित योग प्रवृति को लेश्या लेश्या का अर्थ होगा योग ही लेश्या है। किन्तु इस कहा है। प्रस्तुत परिभाषा के अनुसार दसवें गुण स्थान प्रकार नहीं है। उदाहरण के रूप में सूर्य के बिना किरणे तक ही लेश्या हो सकती है। प्रस्तुत परिभाषा अपेक्षाकृत नहीं होती; किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि किरणें ही होने से पूर्व की परिभाषा से विरुद्ध नहीं है। अब हम सूर्य हैं। तात्पर्य यह है बहता हुआ जो कर्म प्रवाह है संक्षेप में तीनों परिभाषाओं के सम्बन्ध में चिन्तन करेंगे। वही लेश्या का उपादान कारण है। __ प्रथम कर्मवर्गणानिष्पन्न लेश्या को मानने वाली तृतीय योग-परिणाम लेश्या कर्म निस्यन्द स्वभाव युक्त एक परम्परा थी, किन्तु इस पर विस्तार के साथ लिखा नहीं है। यदि इस प्रकार माना जायेगा तो ईपिथिक हुआ साहित्य उपलब्ध नहीं है। मार्ग स्थिति बन्ध बिना कारण का होगा। आगम साहित्य द्वितीय कर्म निस्यन्द लेश्या मानने वाले आचार्गाने में ही समय स्थिति वाले अन्तमहूर्त काल को भी निर्धारित योग-परिणाम लेश्या को स्वीकार नहीं किया है। इनका काल माना है। अतः स्थिति बन्ध का कारण कषाय मन्तव्य है कि लेश्या योग-परिणाम नहीं हो सकती क्योंकि ' नहीं अपितु लेश्या है। जहाँ पर कषाय रहता है वहाँ कर्मबन्ध के दो कारणों में से योग के द्वारा प्रवृत्ति और पर तान पर तीव्र बन्धन होता है। स्थिति बन्ध की परिपक्वता प्रदेश का ही बन्ध हो सकता है. स्थिति और अनभाग का कषाय से होती है। अतः कर्म प्रवाह को लेश्या मानना बन्ध नहीं हो सकता। जबकि आगम साहित्य में स्थिति तक संगत नहीं है। का लेश्या काल प्रतिपादित किया गया है, वह इस कर्मों के कर्मसार और कर्म-असार ये दो रूप हैं। परिभाषा को मानने से घट नहीं सकेगा। अतः कर्म प्रश्न हैं -कर्मों के असार भाव को निस्यन्द मानते हैं तो निस्यन्द लेश्या मानना ही तर्क संगत है ।२० जहाँ पर असार कर्म प्रकृति से लेश्या के उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध का लेश्या की स्थिति काल का बन्धन होता है वहाँ पर चारों कारण किस प्रकार होगा ? और यदि कर्मों के सार भाव का बन्ध होगा। जहाँ पर कषाय का अभाव है वहाँ पर को निस्यन्द कहेंगे तो आठ कर्मों में से किस कर्म के सार योग के द्वारा दो का ही बन्धन होगा। उपशान्त मोह भाव को कहें। यदि आठो ही कर्मों का माना जाय और क्षीण मोह आत्माओं में कर्म-प्रवाह प्रारम्भ है, वहां तो जहां पर कर्मों के विपाक का वर्णन है वहां पर किसी १६ प्रज्ञापना, १७ टीका, पृ० ३३० । १७ अयदोत्तिछ लेस्साओ, सहतियलेस्साहु देस विरद तिये। तत्तो सुक्का लेस्सा, अजोगिठाणं अलेस्सं तु ॥ -गोम्मटसार, जीव काण्ड, ५३२ १८ भावलेश्या कषायोदयरंजितायोगप्रवृत्तिरितिकृत्या औदयिकीत्युच्यते । -सर्वार्थ सिद्धि, अ० २, सू०२। १. जोगपउती लेस्सा कषायउदयाणुरंजिया होइ । 'तत्तो दोणं कज्ज बन्धचउक्कं समुद्दि ठं॥ -गोम्मटसार, जीव काण्ड, ४६० २० (क) उत्तराध्ययन, अ० ३४ टी०, पृ० ६५० । (ख) प्रज्ञापना, १७, पृ०, ३३१ । २१ उत्तराध्ययन, अ० ३४, पृ० ६५० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14