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परिणाम है ।२ प्राचीन साहित्य में शरीर के वर्ण, आणविक आभा और उससे प्रभावित होने वाले विचार इन तीनों अर्थों में लेश्या पर विश्लेषण किया गया है। शरीर का वर्ण और आणविक आभा को द्रव्य लेश्या कहा जाता है और विचार को भाव लेश्या ।४ द्रव्य लेश्या पुद्गल है। पुद्गल होने से वैज्ञानिक साधनों के द्वारा भी उन्हें जाना जा सकता है और प्राणी में योग प्रवृत्ति से होने वाले भावों को भी समझ सकते हैं। द्रव्य लेश्या के पुदगलों पर वर्ण का प्रभाव अधिक होता है। वे पुद्गल कर्म,
द्रव्य-कषाय, द्रव्य-मन, द्रव्य-भाषा के पुद्गलों से स्थूल हैं लेश्या : एक विश्लेषण
किन्तु औदारिक-शरीर, वे क्रिय-शरीर, शब्द, रूप, रस, -साहित्य वाचस्पति श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री गन्ध आदि से सूक्ष्म हैं। ये पुद्गल आरमा के प्रयोग में
आने वाले पुद्गल हैं अतः इन्हें प्रायोगिक पुद्गल कहते लेश्या जैन-दर्शन का एक पारिभाषिक शब्द है। हैं। यह सत्य है कि ये पुद्गल आत्मा से नहीं बँधते हैं, जैन-दर्शन के कर्म सिद्धान्त को समझने में लेश्या का किन्तु इनके अभाव में कर्मबन्धन की प्रक्रिया भी नहीं महत्वपूर्ण स्थान है। इस विराट विश्व में प्रत्येक संसारी होती। आत्मा में प्रतिपल प्रतिक्षण होने वाली प्रवृत्ति से सूक्ष्म कर्म आत्मा जिसके सहयोग से कर्म में लिप्त होती है, वह पदगलोंका आकर्षण होता है। जब वे पुद्गल स्निग्धता व लेश्या है। लेश्या का व्यापक दृष्टि से अर्थं करना चाहें तो रुक्षता के कारण आत्मा के साथ एकमेव हो जाते हैं तब इस प्रकार कर सकते हैं कि पुद्गल द्रव्यके संयोग से होने उन्हें जैन दर्शन में 'कर्म' कहा जाता है।
वाले जीवके परिणाम और जीवकी विचार शक्ति को प्रभालेश्या एक प्रकार का पौद्गलिक पर्यावरण है । जीव वित करने वाले पुद्गल द्रव्य और संस्थान के हेतुभूत वर्ण से पुद्गल और पुद्गल से जीव प्रभावित होते हैं। जीव और कान्ति । भगवती सूत्र में जीव और अजीव दोनों की को प्रभावित करने वाले पुद्गलों के अनेक समूह हैं । उनने आत्म-परिणति के लिए लेश्या शब्द व्यवहृत हुआ है । से एक समूह का नाम लेश्या है। उत्तराध्ययन की वृहत् जैसे चूना और गोबर से दीवार का लेपन किया जाता है वृत्ति में लेश्या का अर्थ आणविक आभा, कान्ति, प्रभा वैसे ही आत्मा पुण्य-पाप या शुभ और अशुभ कर्मों से
और छाया किया है। मूलाराधना में शिवार्य ने लिखा लोपी जाती है अर्थात जिसके द्वारा कर्म आत्मा में लिप्त है 'लेश्या छाया पुद्गलों से प्रभावित होने वाले जीव हो जाते है वह लेश्या है।५ १ बृहद वृत्ति, पत्र ६५०। लेशयति श्लेषयतीवात्मनि जननयननिति लेश्या-अतीव चक्षुराक्षेपिकास्निग्धदीप्त रुपा
छाया। २ मूलाराधना, ७/१६०७ । जब बाहिरलेस्साओ, किण्हादीओ ध्वति पुरिसस्स । अब्भन्तरलेस्साओ, तहकिण्हादीय
पुरिसस्स ॥ (क) गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा ४६४। वपणोदयेण जणिदो सरीरवण्णो दु दव्वदो लेस्सा। सा सोढा किण्हादी
अणेयभेया सभेयेण ॥ (ख) उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ५.३६ । ४ उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ५४० । ५ गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा ४८६, ५० स० (प्रा०) १/१४२-३ ।
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दिगम्बर आचार्य वीरसेन के शब्दों में 'आत्मा और गणधर गौतम ने भगवान महावीर से जिज्ञासा कीकर्म का सम्बन्ध कराने वाली प्रवृत्ति लेश्या है ।' ६ मिथ्यात्व भगवन् ! बाण के जीवों को मार्ग में जाते समय कितनी अवत, कषाय, प्रमाद और योग के द्वारा कर्मों का सम्बन्ध क्रियाएँ लगती हैं ? उसके हर एक अवयव की कितनी आत्मा से होता है । क्या वे ही लेश्या हैं ? पूज्यपाद ने क्रियाएँ होती हैं ? उत्तर में भगवान ने कहा-गौतम, सर्वार्थ सिद्धि में कषायों के उदय से अनुरंजित मन, वचन चार-पाँच क्रियाएँ होती हैं। क्योंकि मार्ग में जाते समय
मार्गवी जीवों को वह संत्रस्त करता है। वाण के प्रहार राजवातिक में अकलंक ने भी उसी का अनुसरण से वे जीव अत्यन्त सिकड जाते हैं। प्रस्तुत सन्तापकारक किया है।
स्थिति में जीव को चार क्रियाएँ लगती हैं, यदि प्राणाति__ सार यह है कि केवल कषाय और योग लेश्या नहीं पात हो जाय तो पाँच क्रियाएँ लगती हैं। यही स्थिति है, किन्तु कषाय और योग दोनों ही उसके कारण हैं। तेजो-लेश्या की भी है। उसमें भी चार-पाँच क्रियाएँ इसलिए लेश्या का अन्तर्भाव न तो योग में किया जा लगती हैं। अष्टस्पशी पुद्गल-द्रव्य मार्गवती जीवों को सकता है और न कषाय में। क्योंकि इन दोनों के संयोग उद्वेग न करे, यह अस्वाभाविक है। भगवती में स्कन्दक से एक तीसरी अवस्था समुत्पन्न होती है जेसे शरबत । मनि का 'अविहिलेश्य' यह विशेषण है जिसका अर्थ है कितने ही आचार्य मानते हैं कि लेश्या में कषाय की प्रधा- उनकी लेश्या यानि मनोवृत्ति संयम से बाहर नहीं है।११ नता नहीं अपितु योग की प्रधानता होती है क्योंकि केवली आचारांग के प्रथम श्रतस्कन्ध में श्रद्धा का उत्कर्ष प्रतिमें कषाय का अभाव होता है, किन्तु योग की सत्ता रहती पादित करते हुए मनोयोग के अर्थ में लेश्या का प्रयोग है, इसलिए उसमें शुक्ल लेश्या है।
हुआ है। शिष्य गुरु की दृष्टि का अनुगमन करे । षट् खण्डागम की धवला टीका में लेश्या के सम्बन्ध उनकी लेश्या में विचरे अर्थात उनके विचारों का अनुमें निर्देश, वर्ण, परिणाम, संक्रम, कर्म, लक्षण, गति, गमन करे । १२ प्रज्ञापना, जीवाभिगम, उत्तराध्ययन, स्वामी, साधन, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति आदि आगम साहित्य में लेश्या शब्द का अल्प-बहुत्व प्रभृति अधिकारों के द्वारा चिन्तन किया है। प्रयोग वर्ण प्रभा और रंग के अर्थ में भी हुआ है। प्रज्ञाआगम साहित्य में अट्ठाइस लब्धियों का वर्णन है। उनमें पना में देवों के दिव्य प्रभाव का वर्णन करते हुए द्युति, एक तेजस् लब्धि है। तेजोलेश्या अजीव है। तेजो- प्रभा, ज्योति, छाया, अचि और लेश्या शब्द का प्रयोग लेश्या के पुद्गलों में जिस प्रकार लाल प्रभा और कान्ति हुआ है । १३ इसी प्रकार नारकीय जीवों के अशुभ कर्म होती है वैसी ही कान्ति तेजस लब्धि के प्रयोग करने वाले विपाकों के सम्बन्ध में गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत कीपुद्गलों में भी होती है। इसी दृष्टि से तेजस्-लब्धि के क्या सभी नारकीय जीव एक सदश लेश्या और एक सदृश साथ लेश्या शब्द भी प्रयुक्त हुआ है।
वर्ण वाले होते हैं या असमान ? समाधान करते हुए
६ धवला, ७, २, १, सू० ३, पृ०७ । . सर्वार्थसिद्धि. २/B. तत्वार्थ राजवार्तिक २/६/८। ८ तत्त्वार्थ राजवार्तिक, २, ६, ८, पृ० १०६ । ' धवला, १, १, १, ४, पृ० १४६ । १० तत्तेणं से उसु उडढं बेहासं उविहिए समाणे जाई तत्थ पाणाई अभिहणई वत्तेति लेस्सेत्ति-भग० २/५, उ०६ । ११ अविहिल्लेसे, भगवती, २-२, उ०१ । १२ आचारांग, अ० ५। १३ प्रज्ञापना, पद २।
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भगवान महावीर ने कहा-सभी जीव समान लेश्या और हैं। कषाय होने पर लेश्या में चारों प्रकार के बन्ध समान वर्ण वाले नहीं होते । जो जीव पहले नरक में उत्पन्न होते हैं। प्रकृति बन्ध और प्रदेश बन्ध का सम्बन्ध योग हुए हैं वे पश्चात उत्पन्न होने वाले जीवों की अपेक्षा से है और स्थिति बन्ध और अनुभाग बन्ध का सम्बन्ध विशुद्ध वर्ण वाले और लेश्या वाले होते हैं। इसका कारण कषाय से है। जब कषाय जन्य बन्ध होता है तब लेण्याएं नारकीय जीवों के अप्रशस्त वर्ण नाम कर्म की प्रकृति तीव्र कम स्थिति वाली होती है। केवल योग में स्थिति और अनुभाग वाली होती है जिसका विपाक भव सापेक्ष्य है। अनुभाग नहीं होता, जेसे तेरहवें गुणस्थानवी अरिहन्तों जो जीव पहले उत्पन्न हुए हैं इन्होंने बहुत सारे विपाक के ईर्यापथिक क्रिया होती है, किन्तु स्थिति, काल और को पा लिया है, स्वल्प अवरोष है। जो बाद में उत्पन्न अनुभाग नहीं होता। जो दो समय का काल बताया गया हुए हैं उन्हें अधिक भोगना है। एतदर्थ पूर्वोत्पन्न विशुद्ध है वह काल वस्तुतः ग्रहण करने का और उत्सर्ग का काल हैं और पश्चादुत्पन्न अविशुद्ध हैं। इसी तरह जिन्होंने है। वह स्थिति और अनुभाग का काल नहीं है। अप्रशस्त लेश्या-द्रव्यों को अधिक मात्रा में भोगा है वे
तृतीय अभिमतानुसार लेश्या द्रव्य योगवर्गणा के विशुद्ध हैं और जिनके अधिक शेष हैं वे अविशुद्ध लेश्या
अन्तर्गत स्वतन्त्र द्रव्य है। बिना योग के लेश्या नहीं वाले हैं।
होती। लेश्या और योग में परस्पर अन्वय और व्यतिरेक हम पूर्व लिख चुके हैं कि लेश्या के दो भेद हैं- सम्बन्ध है। लेश्या के योग निमित्त में दो विकल्प द्रव्य और भाव । द्रव्यलेश्या पुद्गल विशेषात्मक है । इसके समुत्पन्न होते हैं। क्या लेश्या को योगान्तर्गत द्रव्य रूप स्वरूप के सम्बन्धमें मुख्य रूप से तीन मान्यताएं प्राप्त हैं- मानना चाहिए ? अथवा योग निमित्त कर्म द्रव्य रूप ? कर्मवर्गणा निष्पन्न, कर्म निस्यन्द और योगपरिणाम ।१४ यदि वह लेश्या द्रव्य-कर्म रूप है तो घातीकर्म द्रव्य रूप है उत्तराध्ययन सूत्र के टीकाकार शांतिसरि का अभि
____ या अघाती कर्म द्रव्य रूप है ? लेश्या घातीकर्म द्रव्य रूप
नहीं है। क्योंकि घाती कर्म नष्ट हो जाने पर भी लेश्या मत है कि द्रव्य लेश्या का निर्माण कर्मवर्गणा से होता है।
होती है। यदि लेश्या को अघाती कर्म द्रव्य स्वरूप माने यह द्रव्य लेश्या कर्मरूप है तथापि वह आठ कर्मों से पृथक् है, जैसे कि कार्मण शरीर। यदि लेया को कर्मवर्गणा
तो अघाती कर्मों वालों में भी सर्वत्र लेश्या नहीं है ।
चौदहवें गुणस्थान में अघाती कर्म है, किन्तु वहां लेश्या निष्पन्न न माना जाय तो वह कर्म स्थिति विधायक नहीं
का अभाव है। इसलिए योग-द्रव्य के अन्तर्गत ही द्रव्य बन सकती। कर्म लेश्या का सम्बन्ध नामकर्म के साथ
स्वरूप लेश्या मानना चाहिए। है। उसका सम्बन्ध शरीर रचना सम्बन्धी पुद्गलों से है। उसकी एक प्रकृति शरीर नामकर्म है। शरीर नाम
लेश्या से कषायों की वृद्धि होती है ; क्योंकि योग कर्म के पुद्गलों का एक समूह कर्म लेण्या है ।१५
द्रव्यों में कषाय बढ़ाने का सामर्थ्य है। प्रज्ञापना की टीका
में आचार्य ने लिखा है-कर्मों के द्रव्य विपाक होने वाले दूसरी मान्यता की दृष्टि से लेश्या द्रव्य कर्म निस्यन्द और उदय में आने वाले दोनों प्रयत्नों से प्रभावित होते रूप है । यहां पर निस्यन्द रूप का तात्पर्य बहते हुए कर्म- हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव अपना कर्तृत्व दिखाते प्रवाह से है। चोदहवें गुण स्थान में कम की सत्ता है, हैं। जिसे पित्त-विकार हो उसका क्रोध बढ़ जाता है। प्रवाह है। किन्तु वहाँ पर लेश्या नहीं है। वहाँ पर नये ब्राह्मी का सेवन ज्ञानावरण को कम करने में सहायक है। कर्मों का आगमन नहीं होता।
मदिरापान से ज्ञानावरण का उदय होता है। दही के ___ कषाय और योग ये कर्म बन्धन के दो मुख्य कारण सेवन से निद्रा की अभिवृद्धि होती है। निद्रा जो दर्शना१४ प्रज्ञा० पद १७ टीका, पृ० ३३३ । १५ कर्म द्रव्यलेश्या इति सामान्याऽभिधानेऽपि शरीर नामकर्म द्रव्यष्येव कर्म द्रव्य लेश्या। कार्मण शरीरवत् पृथगेव
काष्टकात कर्म वर्गणा निष्पन्नानि कम लेश्या द्रव्यानीति तत्त्वं पुनः। उत्तरा०, अ० ३४ टी०, पृ. ६५० ।
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वरण का औदयिक फल है। अतः स्पष्ट है कषायोदय में पर लेश्या भी है, तथापि स्थिति का बन्धन नहीं होता अनुरंजित योग प्रवृत्ति है। (लेश्या) स्थितिपाक में है। प्रश्न है-समुच्छिन्न शुक्ल ध्यान को ध्याते हुए सहायक होती है।
चौदहवें गुण स्थान में चार कर्म विद्यमान हैं तथापि वहां गोम्मटसार में आचार्य नेमिचन्द्र ने योग-परिणाम पर लेश्या नहीं है। उत्तर है-जो आत्माएँ कर्म युक्त स्वरूप लेश्या का वर्णन किया है । १७ आचार्य पूज्यपाद हैं उन सभी के कर्म-प्रवाह चालू ही रहें. ऐसा नियम नहीं ने सर्वार्थ सिद्धि में '८ और गोम्मटसार के जीव काण्ड
है। यदि इस प्रकार माना जायेगा तो योग परिणाम खण्ड में कषायोदय अनुरंजित योग प्रवृति को लेश्या
लेश्या का अर्थ होगा योग ही लेश्या है। किन्तु इस कहा है। प्रस्तुत परिभाषा के अनुसार दसवें गुण स्थान प्रकार नहीं है। उदाहरण के रूप में सूर्य के बिना किरणे तक ही लेश्या हो सकती है। प्रस्तुत परिभाषा अपेक्षाकृत
नहीं होती; किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि किरणें ही होने से पूर्व की परिभाषा से विरुद्ध नहीं है। अब हम सूर्य हैं। तात्पर्य यह है बहता हुआ जो कर्म प्रवाह है संक्षेप में तीनों परिभाषाओं के सम्बन्ध में चिन्तन करेंगे। वही लेश्या का उपादान कारण है। __ प्रथम कर्मवर्गणानिष्पन्न लेश्या को मानने वाली
तृतीय योग-परिणाम लेश्या कर्म निस्यन्द स्वभाव युक्त एक परम्परा थी, किन्तु इस पर विस्तार के साथ लिखा नहीं है। यदि इस प्रकार माना जायेगा तो ईपिथिक हुआ साहित्य उपलब्ध नहीं है।
मार्ग स्थिति बन्ध बिना कारण का होगा। आगम साहित्य द्वितीय कर्म निस्यन्द लेश्या मानने वाले आचार्गाने में ही समय स्थिति वाले अन्तमहूर्त काल को भी निर्धारित योग-परिणाम लेश्या को स्वीकार नहीं किया है। इनका
काल माना है। अतः स्थिति बन्ध का कारण कषाय मन्तव्य है कि लेश्या योग-परिणाम नहीं हो सकती क्योंकि '
नहीं अपितु लेश्या है। जहाँ पर कषाय रहता है वहाँ कर्मबन्ध के दो कारणों में से योग के द्वारा प्रवृत्ति और पर तान
पर तीव्र बन्धन होता है। स्थिति बन्ध की परिपक्वता प्रदेश का ही बन्ध हो सकता है. स्थिति और अनभाग का कषाय से होती है। अतः कर्म प्रवाह को लेश्या मानना बन्ध नहीं हो सकता। जबकि आगम साहित्य में स्थिति तक संगत नहीं है। का लेश्या काल प्रतिपादित किया गया है, वह इस कर्मों के कर्मसार और कर्म-असार ये दो रूप हैं। परिभाषा को मानने से घट नहीं सकेगा। अतः कर्म प्रश्न हैं -कर्मों के असार भाव को निस्यन्द मानते हैं तो निस्यन्द लेश्या मानना ही तर्क संगत है ।२० जहाँ पर असार कर्म प्रकृति से लेश्या के उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध का लेश्या की स्थिति काल का बन्धन होता है वहाँ पर चारों कारण किस प्रकार होगा ? और यदि कर्मों के सार भाव का बन्ध होगा। जहाँ पर कषाय का अभाव है वहाँ पर को निस्यन्द कहेंगे तो आठ कर्मों में से किस कर्म के सार योग के द्वारा दो का ही बन्धन होगा। उपशान्त मोह भाव को कहें। यदि आठो ही कर्मों का माना जाय
और क्षीण मोह आत्माओं में कर्म-प्रवाह प्रारम्भ है, वहां तो जहां पर कर्मों के विपाक का वर्णन है वहां पर किसी १६ प्रज्ञापना, १७ टीका, पृ० ३३० । १७ अयदोत्तिछ लेस्साओ, सहतियलेस्साहु देस विरद तिये।
तत्तो सुक्का लेस्सा, अजोगिठाणं अलेस्सं तु ॥ -गोम्मटसार, जीव काण्ड, ५३२ १८ भावलेश्या कषायोदयरंजितायोगप्रवृत्तिरितिकृत्या औदयिकीत्युच्यते । -सर्वार्थ सिद्धि, अ० २, सू०२। १. जोगपउती लेस्सा कषायउदयाणुरंजिया होइ ।
'तत्तो दोणं कज्ज बन्धचउक्कं समुद्दि ठं॥ -गोम्मटसार, जीव काण्ड, ४६० २० (क) उत्तराध्ययन, अ० ३४ टी०, पृ० ६५० ।
(ख) प्रज्ञापना, १७, पृ०, ३३१ । २१ उत्तराध्ययन, अ० ३४, पृ० ६५० ।
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भी कर्म का लेश्या के रूप में विपाक का प्रतिपादन नहीं (३) कापोतलेश्या अशुद्ध क्लिष्ट हुआ है। एतदर्थ योग परिणाम को ही लेश्या मानना (४) तेजस लेश्या शुद्ध । अक्लिष्ट चाहिए ।२२ उपाध्याय विनय विजयजी ने लोक-प्रकाश में (५) पदम लेश्या शुद्धतर अक्लिष्टतर इस तथ्य को स्वीकार किया है । २३
(६) शुक्ललेश्या शुद्धतम अक्लिष्टतम भावलेश्या आत्मा का परिणाम विशेष है, जो संक्लेश
प्रस्तुत अशुद्धि और शुद्धि का आधार केवल निमित्त और योग के अनुगत है। संक्लेश के जघन्य, मध्यम,
ही नहीं अपितु निमित्त और उपादान दोनों हैं। अशद्धि उत्कृष्ट ; तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम ; मन्द, मन्दतर, मन्दतम
का उपादान कषाय की तीव्रता है और उसके निमित्त आदि विविध भेद होने से भाव लेश्या के अनेक प्रकार हैं;
कृष्ण, नील, का पोत रंगवाले पुद्गल हैं और शद्धि का तथापि संक्षेप में उसे ६ भागों में विभक्त किया है । अर्थात
उपादान कषाय की मन्दता है और उसके निमित्त रक्त, मन के परिणाम शुद्ध और अशुद्ध दोनों ही प्रकार के होते
पीत और श्वेत रंग वाले पुद्गल हैं। उत्तराध्ययन में हैं और उनके निमित्त भी शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार लेश्या का नाम, वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, परिणाम, लक्षण, के होते हैं। निमित्त अपना प्रभाव दिखाता है जिससे स्थान. स्थिति, गति और आयु इन ग्यारह प्रकार से मन के परिणाम उससे प्रभावित होते हैं। दोनों का पार
लेश्या पर चिन्तन किया है । २६ स्परिक सम्बन्ध है। निमित्त को द्रव्यलेश्या और मन के
___आचार्य अकलंक ने तत्त्वार्थराजवार्तिक २७ में लेश्या परिणाम को भाव लेश्या कहा है। जो पुद्गल निमित्त बनते हैं, उनमें वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श सभी होते हैं
पर (१) निर्देश (२) वर्ण (३) परिणाम (४) संक्रम तथापि उनका नामकरण वर्ण के आधार पर किया गया
(५) कर्म (६) लक्षण (७) गति (८) स्वामित्व (६) साधना है। सम्भव है गन्ध, रस और स्पर्श की अपेक्षा वर्ण मानव
. (१०) संख्या (११) क्षेत्र (१२) स्पर्शन (१३) काल को अधिक प्रभावित करता है। कृष्ण, नील और कपोत
(१४) अन्तर (१५) भाव (१६) अल्प बहुत्व इन सोलह
प्रकारों से चिन्तन किया है। ये तीन रंग अशुभ हैं और इन रंगों से प्रभावित होने वाली लेश्याएँ भी अशुभ मानी गयी हैं और उन्हें अधर्म-लेश्याएं जितने भी स्थल परमाणु स्कन्ध हैं वे सभी प्रकार के कहा गया है ।२४ तेजस्, पद्म और शुक्ल ये तीन वर्ण रंगों और उपरंगों वाले होते हैं। मानव का शरीर स्थूल शुभ हैं और उनसे प्रभावित होने वाली लेश्याएँ भी शुभ स्कन्ध वाला है। अतः उसमें सभी रंग है। रंग होने हैं। इसलिए तीन लेश्याओं को धर्म लेश्या कहा है ।२५ से वह बाह्य रंगों से प्रभावित होता है और उसका प्रभाव
अशुद्धि और शुद्धि की दृष्टि से ६ लेश्याओं का वर्गी- मानव के मानस पर भी पड़ता है। एतदर्थ ही भगवान करण इस प्रकार किया है
महावीर ने सभी प्राणियों के प्रभाव व शक्ति की दृष्टि से (१) कृष्ण लेश्या अशुद्धतम
क्लिष्टतम शरीर और विचारों को छः भागों में विभक्त किया है (२) नीललेश्या अशुद्धतर क्लिष्टतर और वही लेश्या है। २२ (क) न लेश्या स्थिति हेतवः किन्तु कषायाः लेश्यास्तु कषायोदयान्तर्गताः अनुभाग हेतवः अतएव च स्थिति
पाक विशेषतस्य भवति लेश्या विशेषण । -उत्तराध्ययन, ३४, पृ० ६५० ।
(ख) प्रज्ञापत्ता, १७, पृ० ३३१ । २३ लेसाणां निक्खेवो च उकओ दुविहो उ होई नायव्यो। -लोक प्रकाश, ५३४
उत्तराध्ययन, ३४/५६ ।
उत्तराध्ययन, ३४/५७ । २६ उत्तराध्ययन, ३४/३ । २७ तत्त्वार्थराजवार्तिक, १६, पृ० २३८ ।
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डॉ० हर्मन जेकोबी ने लिखा है जेनों के लेश्याओं के है। वस्त्र कम करना और वस्त्रों का पूर्ण त्याग कर देना सिद्धान्त में तथा गोशालक के मानवों को छः विभागों में अभिजातियों की श्रेष्ठता व ज्येष्ठता का कारण है। विभक्त करने वाले सिद्धान्त में समानता है। इस बात
अपने प्रधान शिष्य आनन्द से तथागत बुद्ध ने कहाको सर्वप्रथम प्रोफेसर ल्युमेन ने पकड़ा; पर इस सम्बन्ध में
मैं भी छः अभिजातियों का प्रतिपादन करता हूँ।
है मेरा विश्वास है जैनों ने यह सिद्धान्त आजीविकों से लिया और उसे परिवर्तित कर अपने सिद्धान्तों के साथ समन्वित
१ कोई व्यक्ति कृष्णाभिजातिक (नीच कुल में पैदा
हुआ) हो और कृष्ण धर्म (पापकृत्य) करता है। कर दिया।२८ प्रो० ल्युमेन तथा डॉ. हर्मन जेकोबी ने मानवों का
२ कोई व्यक्ति कृष्णाभिजातिक हो और शुक्ल धर्म
करता है। छ: प्रकार का विभाजन गोशालक द्वारा माना है, पर अंगुत्तरनिकाय से स्पष्ट होता है कि प्रस्तुत विभाजन
३ कोई व्यक्ति कृष्णा भिजातिक हो और अकृष्णगोशालकद्वारा नहीं अपितु पूरणकश्यपके द्वारा किया गया अशुका
अशक्ल निर्वाण को समुत्पन्न करता है। था।२९ दीघनिकाय में छः तीर्थंकरों का उल्लेख है, ४ कोई व्यक्ति शुक्लाभिजातिक ( उच्च कुल में उनमें पुरणकश्यप भी एक हैं जिन्होने रंगों के समुत्पन्न हुआ) हो तथा शुक्ल धर्म (पुण्य) करता है। आधार पर छ: अभिजातियां निश्चित की थीं। वे इस
५ कोई व्यक्ति शुक्लाभिजातिक हो और कृष्ण धर्म प्रकार हैं
करता है। १ कृष्णाभिजाति-क्रूर कर्म करने वाले सौकरिक,
६ कोई व्यक्ति शुक्ला भिजातिक हो और अशुक्लशाकुनिक प्रभृति जीवों का समूह ।
अकृष्ण निर्वाण को समुत्पन्न करता है।३२ २ नीलाभिजाति-बोद्ध श्रमण और कुछ अन्य कम- प्रस्तुत वर्गीकरण जन्म और कर्म के आधार पर किया वादी, क्रियावादी भिक्षुओं का समूह ।
गया है। इस वर्गीकरण में चाण्डाल, निषाद आदि जातियों ३ लोहिताभिजाति-एक शाटक निर्ग्रन्थों का समूह। को शुक्ल कहा है। कायिक, वाचिक और मानसिक ४ हरिद्राभिजाति-श्वेत वस्त्रधारी या निर्वस्त्र । जो दुश्चरण हैं वे कृष्ण धर्म हैं और उनका जो श्रेष्ठ ५ शुक्ला भिजाति-आजीवक श्रमण-श्रमणियों का आचरण है वह शुक्ल धर्म है पर निर्वाण न कृष्ण है, न समूह ।
शुक्ल है। ६ परम शुक्लाभिजाति-आजीवक आचार्य, नन्द, इस वर्गीकरण का उद्देश्य है नीच जाति में समुत्पन्न वत्स, कृष, सांस्कृत्य मस्करी गोशालक प्रभृति का व्यक्ति भी शुक्ल धर्म कर सकता है और उच्च कुल में
उत्पन्न व्यक्ति भी कृष्णधर्म करता है। धर्म और निर्वाण आनन्द की जिज्ञासा पर तथागत बुद्ध ने कहा--ये का सम्बन्ध जाति से नहीं है। छः अभिजातियाँ अव्यक्त व्यक्ति द्वारा किया हुआ प्रति- प्रस्तुत विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि पूरणकश्यप पादन है। प्रस्तुत वर्गीकरण का मूल आधार अचेलता और तथागत बुद्ध ने छः अभिजातियों का जो वर्गीकरण २८ Sacred Books of the East, Vol. XLV, Introduction p.xxx. २९ अंगुत्तरनिकाय, ६-६-३, भाग ३, पृ०६३ । ३० दीघनिकाय, १/२, पृ०१६, २० । ३१ अंगुत्तरनिकाय, ६/६/३, भाग ३, पृ० ३५, ६३-६४ | ३२ (क) अंगुत्तरनिकाय, ६/६/३, भाग ३, पृ० ६३-६४ ।
(ख) दीघनिकाय, ३/१०, पृ० २२५ ।
समूह ।
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किया है उसका सम्बन्ध लेश्या के साथ नहीं है । लेश्याओं कि जैन दर्शन ने यह वर्णन महाभारत से लिया है । क्योंकि का जो सम्बन्ध है वह एक-एक व्यक्ति से है। विचारों अन्य दर्शनों ने भी रंग के प्रभाव की चर्चा की है। पर को प्रभावित करने वाली लेश्याएं एक व्यक्ति के जीवन में जैनाचार्यों ने इस सम्बन्ध में जितना गहरा चिन्तन किया समय के अनुसार छः भी हो सकती है।
है इतना अन्य दर्शनों ने नहीं किया। उन्होंने तो केवल छः अभिजातियों की अपेक्षा लेश्या का जो वर्गीकरण इसका वर्णन प्रासंगिक रूप से ही किया है। अतः डॉ० है वह वर्गीकरण महाभारत से अधिक मिलता-जुलता है। हमन जेकोबी का यह मानना कि लेश्या का वर्णन जैनियों एकबार सनत्कुमार ने दानवों के अधिपति वृत्रासुर से कहा ने अन्य परम्पराओं से लिया है, तर्कसंगत नहीं है। -प्राणियों के छः प्रकार के वर्ण हैं : (१) कृष्ण (२) धूम्र कुरुक्षेत्र के मैदान में श्रीकृष्ण ने गति के कृष्ण और ३) नील (४) रक्त (५) हारिद्र ओर (६) शक्ल | कृष्ण शक्ल में दो विभाग किये। कृष्ण गति वाला पुनः-पुनः और नील वर्ण का सुख मध्यम होता है। रक्त वर्ण अधिक जन्म-मरण ग्रहण करता है, शक्ल गति वाला जन्म और सहन करने योग्य होता है। हारिद्र वर्ण सुखकर होता मरण से मुक्त हो जाता है । ३६
धम्मपद ३७ में धर्म के दो विभाग किये हैं-कृष्ण और ___ महाभारत में कहा है-कृष्ण वर्ण वाले की गति नीच शुक्ल । पण्डित मानव को कृष्ण धर्म का परित्याग कर होती है। जिन निकृष्ट कर्मों से जीव नरक में जाता है शुक्ल धर्म का पालन करना चाहिए। वह उन कर्मों में सतत आसक्त रहता है। जो जीव नरक महर्षि पतंजलि ने कर्म की दृष्टि से चार जातियां प्रतिसे निकलते हैं उनका वर्ण धूम्र होता है जो रंग पशु-पक्षी पादित की हैं-(१) कृष्ण (२) शक्ल-कृष्ण (३)शक्ल (४) जाति का है। मानव जाति का रंग नीला है । देवों का अशक्ल-अकृष्ण, जो क्रमशः अशद्धतर, अशद्ध, शद्ध और रंग रक्त है-वे दूसरों पर अनुग्रह करते हैं। जो विशिष्ट
शद्धतर है। तीन कर्मजातियां सभी जीवों में होती हैं, देव होते हैं उनका रंग हारिद्र है। जो महान साधक हैं
किन्तु चौथी अशक्ल-अकृष्ण जाति योगी में होती है । ३८ उनका वर्ण शक्ल है।४ अन्यत्र महाभारत में यह भी प्रस्तुत सूत्र पर भाष्य करते हुए लिखा है कि उनका कर्म लिखा है कि दुष्कर्म करने वाला मानव वर्ण से परिभृष्ट कृष्ण होता है जिनका चित्त दोष कलुषित या क्रूर है । हो जाता है और पुण्य कर्म करने वाला मानव वर्ण के पीड़ा और अनुग्रह दोनों विधाओं से मिश्रित कर्म शक्लउत्कर्ष को प्राप्त करता है । ३५
कृष्ण कहलाता है। यह बाह्य साधनों से साध्य होता है । तुलनात्मक दृष्टि से हम चिन्तन करें तो सहज ही तप, स्वाध्याय और ध्यान में निरत व्यक्तियों के कर्म परिज्ञात होता है कि जैन दृष्टि का लेश्या-निरूपण और केवल मन के अधीन होते हैं। उनमें बाह्य साधनों की किसी महाभारत का वर्ण-विश्लेषण-ये दोनों बहुत कुछ समा- भी प्रकार की अपेक्षा नहीं होती और न किसी को पीड़ा नता को लिये हुए हैं । तथापि यह नहीं कहा जा सकता है दी जाती है, एतदर्थ यह कर्म शुक्ल कहा जाता है। जो
३३ षड जीववर्णा परमं प्रमाणं, कृष्णो धूम्रो नीलमथास्य मध्यम् । ___रक्तं पुनः सह्यतर सुखं तु, हारिद्रवर्ण सुसुखं च शुक्लम् ।। -महाभारत, शांति पर्व, २८०/३३ । ३४ महाभारत, शांति पर्व, २८०/३४-४७ । ३५ महाभारत, शांति पर्व, २६१/४-५ । ३६ शुक्लकृष्णे गती ह्य ते, जगतः शाश्वते मते ।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययाऽवर्तते पुनः॥ -गीता ८/२६ । ३७ धम्मपद, पंडितवरग, श्लोक १६ । ३८ पातञ्जल योगसूत्र, ४/७ ।
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नाम
वेग
(३) तेजस्
लाल
पुण्य के फल की भी आकांक्षा नहीं करते उन क्षीण-क्लेश सत्त्वगुण से मन का मैल मिट जाता है, अतः वह शक्ल चरमदेह योगियों के अशुक्ल-अकृष्ण कर्म होता है। है। शिव स्वरोदय में लिखा है-विभिन्न प्रकार
प्रकृति का विश्लेषण करते हुए उसे श्वेताश्वतर के तत्त्वों के विभिन्न वर्ण होते हैं, जिन वर्गों से प्राणी उपनिषद् में लोहिन, शक्ल और कृष्ण रंग का बताया प्रभावित होता है।४१ वे मानते हैं कि मूल में प्राणतत्त्व गया है ।३९ सांख्य कौमुदी में कहा गया है जब रजोगुण एक है। अणओं की कमी-बेशी, कम्पन वा वेग से उसके के द्वारा मन मोह से रंग जाता है तब वह लोहित है, पांच विभाग किये गये हैं। जैसे:
रंग आकार
रस या स्वाद (१) पृथ्वी अल्पतर पीला चतुष्कोण
मधुर (२) जल अल्प सफेद या बैंगनी अर्द्ध चन्द्राकार
कसैला तीव्र
त्रिकोण
चरपरा (४) वायु तीव्रतर नीला या आसमानी गोल
खट्टा (५) आकाश तीव्रतम काला या नीलाभ अनेक बिन्दु गोल
कड़वा सर्व वर्णक मिश्रित रंग) या आकार शून्य जैनाचार्यों ने लेश्या पर गहरा चिन्तन किया है। पूर्वापेक्षया कम। नीले, आसमानी रंग से प्रकृति में उन्होंने वर्ण के साथ आत्मा के भावों का भी समन्वय शीतलता का संचार होता है। हरे रंग से न अधिक किया है। द्रव्यलेश्या पौद्गलिक है। अतः आधुनिक उष्मा बढ़ती है और न अधिक शीतलता का ही संचार वैज्ञानिक दृष्टि से भी लेश्या पर चिन्तन किया जा होता है, अपितु सम-शीतोष्ण रहता है। सफेद रंग से सकता है।
प्रकृति सदा सम रहती है। लेश्या : मनोविज्ञान और पदार्थ विज्ञान
रंगों का शरीर पर भी अद्भुत प्रभाव पड़ता है। मानव का शरीर, इन्द्रियाँ और मन ये सभी पुद्गल लाल रंग से स्नायु मण्डल में स्फूर्ति का संचार होता है । से निर्मित हैं। पुद्गल में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श नीले रंग से स्नायविक दुर्बलता नष्ट होती है, धातुक्षय होने से वह रूपी है। जैन साहित्य में वर्ण के पाँच प्रकार सम्बन्धी रोग मिट जाते हैं तथा हृदय और मस्तिष्क में बताये हैं-काला, पीला, नीला, लाल और सफेद । शक्ति की अभिवृद्धि होती है। पीले रंग से मस्तिष्क की आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से सफेद रंग मौलिक नहीं है। दुर्बलता नष्ट होकर उसमें शक्ति संचार होता है, कब्ज, वह सात रंगों के मिलने पर बनता है। उन्होंने रंगों के यकृत, प्लीहा के रोग मिट जाते हैं। हरे रंग से ज्ञानसात प्रकार बताये हैं। यह सत्य है कि रंगों का प्राणी तन्तु व स्नायु-मण्डल सुदृढ़ होते हैं तथा धातुक्षय सम्बन्धी के जीवन के साथ बहुत ही गहरा सम्बन्ध है। वैज्ञानिकों रोग नष्ट हो जाते हैं । गहरे नीले रंग से आमाशय संबंधी ने भी परीक्षण कर यह सिद्ध किया है कि रंगों का प्रकृति रोग मिटते हैं। सफेद रंग से नींद गहरी आती है। पर, शरीर पर और मन पर प्रभाव पड़ता है। जैसे लाल, नारंगी रंग से वायु सम्बन्धी व्याधियाँ नष्ट हो जाती है नारंगी, गुलाबी, बादामी रंगों से मानव की प्रकृति में और दमा की व्याधि भी शान्त हो जाती है । बैगनी रंग उष्मा बढ़ती है। पीले रंग से भी उष्मा बढ़ती है किन्तु से शरीर का तापमान कम हो जाता है।
३९ अजामेकां लोहित शक्ल कृष्णां बहवीः प्रजा सृजमानां सरुपाः ।
...अजो ह्य को जुषमाणोऽनुशेते, जहात्थेना मुक्त भोगाम जोऽन्यः॥ -श्वेताश्वतर उपनिषद् ४/५।। ४. सांख्य कौमुदी, पृ० २००। ४१ आपः श्वेता क्षितिः पीता, रक्तवर्णों हुताशनः ।
मारुतो नीलजीभूतः, आकाशः सर्ववर्णक ।। -शिव स्वरोदय, भाषा टीका, श्लो० १५६, पृ०४२।
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प्रकृति और शरीर पर ही नहीं, किन्तु मन पर भी रंगों उत्पन्न नहीं करते इसलिए वे अप्रशस्त व अशभ हैं और का प्रभाव पड़ता है जैसे, काले रंग से मन में असंयम, कहीं पर अच्छे विचारों को उत्पन्न करते हैं, अतः वे हिंसा एवं करता के विचार लहराने लगेंगे। नीले रंग प्रशस्त व शभ है। क्रोध से अग्नि तत्त्व प्रदीप्त हो जाता से मन में ईर्ष्या, असहिष्णता, रस-लोलुपता एवं विषयों है, उसका वर्ण लाल माना गया है। मोह से जल तत्त्व के प्रति आसक्ति व आकर्षण उत्पन्न होता है। कापोत की अभिवृद्धि हो जाती है, उसका वर्ण सफेद या बैगनी रंग से मन में वक्रता, कुटिलता अंगड़ाइयाँ लेने लगती माना गया है। भय से पृथ्वी तत्त्व प्रधान हो जाता है, हैं। अरुण रंग से मन में ऋजुता, विनम्रता एवं धर्म प्रेम इसका वर्ण पीला है। लेश्याओं के वर्णन में भी क्रोध, की पवित्र भावनाएं पैदा होती हैं। पीले रंग से मन में मोह, और भय आदि अन्तर में रहे हुए हैं और उनका क्रोध-मान माया-लोभ आदि कषाय नष्ट होते हैं और मानस पर असर होता है। कहीं पर श्याम रंग को भी साधक के मन में इन्द्रिय विजय के भाव तरंगित होते हैं। प्रशस्त माना है जैसे नमस्कार महामन्त्र के पदों के सफेद रंग से मन में अपूर्व शान्ति तथा जितेन्द्रियता के साथ जिन रंगों की कल्पना की गयी है उसमें 'नमो निर्मल भावों का संचार होता है।
लोए सव्वसाहणं' का वर्ण कृष्ण बताया है। साधु अन्य दृष्टि से भी रंगों का मानसिक विचारों पर जो
के साथ जो कृष्ण वर्ण की योजना की गयी है वह कृष्ण प्रभाव होता है उसका वर्गीकरण चिन्तकों ने अन्य रूप से
लेश्या जो निकृष्टतम चित्तवृत्ति को समुत्पन्न करने हेतु
अप्रशस्त कृष्ण वर्ण है उससे पृथक है, कृष्ण लेश्या का जो प्रस्तुत किया है, यद्यपि वह द्वितीय वर्गीकरण से कुछ पृथ
कृष्ण वर्ण है उससे साधु का जो कृष्णवर्ण है वह भिन्न है कता लिए है। जैसे, आसमानी रंग से भक्ति सम्बन्धी
और प्रशस्त है। भावनाएं जाग्रत होती है। लाल रंग से काम-वासनाएं उबुद्ध होती है। पीले रंग से तार्किक शक्ति की अभी- पाश्चात्य देशों में वैज्ञानिक रंगों के सम्बन्ध में वद्धि होती है। गुलाबी रंग से प्रेम विषयक भावनाएं गम्भीर अध्ययन कर रहे हैं। कलर थेरॉपी रंग के आधार जाग्रत होती है। हरे रंग से मन में स्वार्थ की भावनाएं पर समुत्पन्न हुई है। रंग से मानव के चित्त व शरीर पनपती है। लाल व काले रंग का मिश्रण होने पर मन की भी चिकित्सा प्रारम्भ हुई है जिसके परिणाम भी बहुत में क्रोध भड़कता है।
अच्छे आये हैं ।४२ जब हम इन दोनों प्रकार के रंगों के वर्गीकरण पर आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से विद्युत चुम्बकीय तरंगें तुलनात्मक दृष्टि से चिन्तन करते हैं तो ऐसा ज्ञात होता बहुत ही सूक्ष्म हैं। वे विराट विश्व में गति कर रही हैं। है कि प्रत्येक रंग प्रशस्त और अप्रशस्त दो प्रकार का है। वैज्ञानिकों ने विद्युत चुम्बकीय स्पेक्ट्रम का सामान्य रूप कहीं पर लाल, पीले और सफेद रंग अच्छे विचारों को से विभाजन इस प्रकार से किया है :
रेडियो तरंगें
सूक्ष्म तरंगें
अवरक्त
दृश्यमान
| परा बैगनी
एक्स-रे गामा किरणे
तरंग दैर्घ्य प्रस्तुत चार्ट से यह स्पष्ट होता है कि विश्व में जितनी विकिरणों का स्थान बहुत ही महत्वपूर्ण है जो विकिरणे भी विकिरणें हैं उन विकरणों की तुलना में जो दिखायी दृष्टिगोचर नहीं होती है। त्रिपार्श्व के माध्यम से उनके सात देती है उन विकिरणों का स्थान नहीं जैसा है। पर उन वर्ण देख सकते हैं। जैसे बैगनी, नीला, आकाश सटश ४२ देखिए 'अषुओर आभा', ले० प्रो० जे० सी० ट्रस्ट ।
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नीला, हरा, पीला, नारंगी और लाल। इन विकिरणों नील और कापोत लेश्याएं तीन कर्म-बन्धन में सहयोगी में एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि क्रमशः इन रंगों में व प्राणी को भौतिक पदार्थों में लिप्त रखती हैं। ये आवृत्ति ( frequency ) कम होती है और तरंग दैर्ध्य लेश्याएं आत्मा के प्रतिकूल हैं, अतः इन्हें आगम-साहित्य ( wave length ) में अभिवृद्धि होती है। बैगनी रंग में अशुभ व अधर्म लेश्याएं कहा गया है और इनसे तीव्र के पीछे की विकिरणों को परा बेगनी (ultra-violet) कर्म-बन्धन होता है। और लाल रंग के आगे की विकिरणों को अवरक्त (infra
उसके पश्चात की विकिरणों की तरंगें अधिक लम्बी red) कही जाती हैं । प्रस्तुत वर्गीकरण में वर्ण की मुख्यता
होती हैं और उनमें आवृत्ति कम होती है। इसी तरह तेजो, है। किन्तु जितनी विकिरणें हैं उनके लक्षण, आवृत्ति और तरंग दैर्ध्य हैं।
पद्म व शुक्ल लेश्याएँ तीघ्र कर्म बन्धन नहीं करती। इनमें
विचार, शुभ और शुभतर होते चले जाते हैं । इन तीन विज्ञान के आलोक में जब हम लेश्या पर चिन्तन लेश्या वाले जीवों में क्रमशः अधिक निर्मलता आती है । करते हैं तो सूर्य के प्रकाश की भांति यह स्पष्ट होता है इसलिए ये तीन लेश्याए शुभ हैं और इन्हें धर्म-लेश्याएं कि छः लेश्याओं के वर्ण और दृष्टिगोचर होने वाले कहा गया है ! वर्ण-पट spectrum के रंगों की तुलना इस प्रकार की उपयुक्त पंक्तियों में हमने जो विकिरणों के साथ जा सकती है
तुलना की है वह स्थूल रूप से है। तथापि इतना स्पष्ट दिखायी दिया जाने वाला वर्ण-पट
लेश्या है कि लेश्या के लक्षणों में वर्ण की प्रधानता है। विकिरणों (१) परा बैगनी से बैगनी तक कृष्ण लेश्या में आवृत्ति और तरंग की लम्बाई होती है। विचारों में (२) नीला
नीललेश्या जितने अधिक संकल्प-विकल्प के द्वारा आवर्त होंगे वे (३) आकाश सदृश नीला
कापोतलेश्या उतने ही अधिक आत्मा के लिए अहितकर होंगे। एतदर्थ - (४) पीला
तेजोलेश्या ध्यान और उपयोग व साधना के द्वारा विचारों को स्थिर (५) लाल
पद्मलेश्या करने का प्रयास किया जाता है। (६) अवरक्त तथा आगे की विकिरणें शुक्ललेश्या हम पूर्व ही बता चुके हैं कि लेश्याओं का विभाजन
डॉ. महावीर राज गेलड़ा ने 'लेश्याः एक विवेचन' रंग के आधार पर किया गया है। प्रत्येक व्यक्ति के चेहरे शीर्षक लेख४३ में जो चार्ट दिया है उसमें उन्होंने के आस-पास एक प्रभा-मण्डल विनिर्मित होता है जिसे वर्ण के स्थान पर पाँच ही वर्ण लिये हैं, हरा व नारंगी 'ओरा' कहते हैं। वैज्ञानिकों ने इस प्रकार के कैमरे वर्ण छोड़ दिये हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में तेजोलेश्या का निर्माण किये हैं जिनमें प्रभा-मण्डल के चित्र भी लिये जा रंग हिंगुल की तरह रक्त लिखा है और पद्मलेश्या का रंग सकते हैं। प्रभा-मण्डल के चित्र से उस व्यक्ति के अन्तहरिताल की तरह पीत लिखा है। किन्तु डॉ० गेलड़ा ने निस में चल रहे विचारों का सहज पता लग सकता है। तेजोलेश्या को पीले वर्ण वाली और पद्म लेश्या को लाल यदि किसी व्यक्ति के आस-पास कृष्ण आभा है फिर वर्ण वाली माना है, वह आगम की दृष्टि से उचित नहीं भले ही वह व्यक्ति लच्छेदार भाषा में धार्मिक-दार्शनिक है। लाल के बाद आगमकार ने पीत का उल्लेख क्यों चर्चा करे तथापि काले रंग की वह प्रभा उसके चित्त की किया है इस सम्बन्ध में हम आगे की पंक्तियों में विचार कालिमा की स्पष्ट सूचना देती है। भगवान महावीर. करेंगे।
तथागत बुद्ध, मर्यादा पुरुषोत्तम राम, कर्मयोगी श्रीकृष्ण, .. तीन जो प्रारम्भिक विकिरणें हैं, वे लघुतरंग वाली प्रेममूर्ति क्राइस्ट आदि विश्व के जितने भी विशिष्ट और पुन:-पुनः आवृत्ति वाली होती हैं। इसी तरह कृष्ण, महापुरुष हैं उनके चेहरों के आसपास चित्रों में प्रभामण्डल ४३ देखिए° पूज्य प्रवर्तक श्री अंबालालजी म० अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० २५२ ।
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बनाये हुए दिखाई देते हैं जो उनकी शुभू आभा को है। कापोतलेल्या में नीला रंग फीका हो जाता है । प्रकट करते हैं। उनके हृदय की निर्मलता और अगाध कापोतलेश्या वाले व्यक्ति की वाणी व आचरण में वक्रता स्नेह को प्रकट करते हैं। जिन व्यक्तियों के आस-पास होती है। वह अपने दुर्गणों को छिपाकर सदगुणों को काला प्रभामण्डल है उनके अन्तमानस में भयंकर दुर्गणों प्रकट करता है।४६ नील लेश्या से उसके भाव कुछ का साम्राज्य होता है। क्रोध की आंधी से उनका मानस अधिक विशुद्ध होते हैं। एतदर्थ ही अधर्मलेश्या होने सदा विक्षुब्ध रहता है, मान के सर्प फूत्कारें मारते रहते पर भी धर्मलेश्या के सन्निकट है। हैं, माया और लोभ के बवण्डर उठते रहते हैं।४४ वह स्वयं कष्ट सहन करके भी दूसरे व्यक्तियों को दुःखी बनाना
चतुर्थ लेश्या का रंग शास्त्रकारों ने लाल प्रतिचाहता है। वैदिक साहित्य में मृत्यु के साक्षात देवता यम
पादित किया है। लाल रंग साम्यवादियों की दृष्टि से का रंग काला है, क्योंकि यम सदा यही चिन्तन करता क्रांति का प्रतीक है। तीन अधर्म लेश्याओं से निकलकर रहता है कब कोई मरे और मैं उसे ले आऊँ। कृष्ण वर्ण जब वह धर्मलेश्या में प्रविष्ट होता है तब यह एक प्रकार पर अन्य किसी भी रंग का प्रभाव नहीं होता। वैसे ही से क्रांति ही है अतः इसे धर्मलेश्या में प्रथम स्थान दिया कृष्णलेश्या वाले जीवों पर भी किसी भी महापुरुष के गया है । वचनों का प्रभाव नहीं पड़ता। सूर्य की चमचमाती किरणे
वैदिक परम्परा में संन्यासियों को गैरिक अर्थात लाल जब काले वस्त्र पर गिरती है तो कोई भी किरण पुनः
काइ भा किरण पुनः रंग के वस्त्र धारण करने का विधान है। हमारी दृष्टि से नहीं लोटती। काला वस्त्र में सभी किरणं डूब जाती हैं। उन्होंने जो यह रंग चना है वह जीवन में क्रांति करने की जो व्यक्ति जितना अधिक दुगणों का भण्डार होगा दृष्टि से ही चना होगा। जब साधक के अन्तर्मानस में उसका प्रभामण्डल उतना ही अधिक काला होगा। यह
क्रांति की भावना उबुद्ध होती है तो उसके शरीर का
र काला प्रभामण्डल कृष्णलेश्या का स्पष्ट प्रतीक है।
प्रभामण्डल लाल होता है और वस्त्र भी लाल होने से वे द्वितीय लेश्या का नाम नीललेश्या है। यह कृष्ण- आभामण्डल के साथ घुलमिल जाते हैं। जब जीवन में लेश्या से श्रेष्ठ है। उसमें कालापन कुछ हलका हो जाता लाल रंग प्रकट होता है तब उसके स्वार्थ का रंग नष्ट है। नीललेश्या वाला व्यक्ति स्वार्थी होता है। उसमें हो जाता है। तेजोलेश्या वाले व्यक्ति का स्वभाव नम्र व ईर्ष्या, कदाग्रह, अविद्या, निर्लजता, द्वेष, प्रमाद, रस- अचपल होता है। वह जितेन्द्रिय, तपस्वी, पापभीरु और लोलुपता, प्रकृति की क्षुद्रता और बिना विचारे कार्य करने मुक्ति की अन्वेषणा करने वाला होता है।४७ संन्यासी की प्रवृत्ति होती है।४५ आधनिक भाषा में हम उसे का अर्थ भी यही है। उसमें महत्त्वाकांक्षा नहीं होती। सेल्फिश कह सकते हैं। यदि उसे किसी कार्य में लाभ उसके जीवन का रंग ऊषाकाल के सूर्य की तरह होता है। होता हो तो वह अन्य व्यक्ति को हानि पहुँचाने में संकोच उसके चेहरे पर साधना की लाली और सूर्य के उदय की नहीं करता। किन्तु कृष्णलेश्या की अपेक्षा उसके विचार तरह उसमें ताजगी होती है। कुछ प्रशस्त होते हैं।
पंचम लेश्या का नाम पद्म है। लाल के बाद पद्म तीसरी लेश्या का नाम कापोत है जो अलसी पुष्प अर्थात पीले रंग का वर्णन है। प्रातःकाल का सूर्य ज्योंकी तरह मटमैला अथवा कबूतर के कण्ठ के रंगवाला होता ज्यों ऊपर उठता है उसमें लालिमा कम होती जाती है
४४ उत्तराध्ययन, ३४/२१-२२ ।
उत्तराध्ययन, ३४/२२-२४ । ४६ उत्तराध्ययन, ३४/२५-२६ । ४७ उत्तराध्ययन, ३४/२७-२८ ।
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और सोने की तरह पीत रंग प्रस्फुटित होता है। लालरंग से काट दिया जाय जिससे हम आनन्द से बैठकर खूब फल में उत्तेजना हो सकती है पर पीले रंग में कोई उत्तेजना खा सकें । नहीं है । पदमलेश्या वाले साधक के जीवन में क्रोध-मान- दसरे मित्र ने प्रथम मित्र के कथन का प्रतिवाद करते माया-मोह की अल्पता होती है। चित्त प्रशांत होता है। हुए कहा-सम्पूर्ण वृक्ष काटने से क्या लाभ है ! केवल जितेन्द्रिय और अल्पभाषी होने से वह ध्यान साधना सहज शाखाओं को काटना ही पर्याप्त है। रूप से कर सकता है।४८ पीत रंग ध्यान की अवस्था
तृतीय मित्र ने कहा-मित्र, तुम्हारा कहना भी उचित का प्रतीक है। एतदर्थ ही बौद्ध संन्यासियों के वस्त्र का
नहीं है। बड़ी-बड़ी शाखाओं को काटने से भी कोई रंग पीला है। वैदिक परम्पराओं के संन्यासियों के वस्त्र
फायदा नहीं है। छोटी-छोटी शाखाओं को काट लेने का रंग लाल है जो क्रांति का प्रतीक है और बौद्ध
से ही हमारा कार्य हो सकता है। फिर बड़ी शाखाओं भिक्षुओं के वस्त्र का रंग पीला है वह ध्यान का को निरर्थक क्यों काटा जाय? प्रतीक है।
चतुर्थ मित्र ने कहा-मित्र, तुम्हारा कथन भी मुझे षष्ठ लेश्या नाम शक्ल है। शुभ या श्वेत रंग समाधि युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता। छोटी-छोटी शाखाओं का रंग है। श्वेत रंग विचारों की पवित्रता का प्रतीक को काटने की कोई आवश्यकता नहीं है। केवल फलों है। शुक्ललेश्या वाले व्यक्ति का चित्त प्रशान्त होता है। के गुच्छों को ही तोड़ना पर्याप्त है। मन, वचन, काया पर वह पूर्ण नियन्त्रण करता है। वह पांचवें मित्र ने कहा-फलों के गुच्छों को तोड़ने से जितेन्द्रिय है ।४९ एतदर्थ ही जेन श्रमणों ने श्वेत रंग क्या लाभ है उस गुच्छे में तो कच्चे और पके दोनों को पसन्द किया है। वे श्वेत रंग के वस्त्र धारण करते ही प्रकार के फल होते हैं। हमें पके फल ही तोड़ना . हैं । उनका मंतव्य है कि वर्तमान में हम में पूर्ण विशुद्धि नहीं चाहिए । निरर्थक कच्चे फलों को क्यों तोड़ा जाय ? ... है, तथापि हमारा लक्ष्य है शुक्ल ध्यान के द्वारा पूर्ण
छठे मित्र ने कहा- मुझे तुम्हारी चर्चा ही निरर्थक विशुद्धि को प्राप्त करना। एतदर्थ उन्होंने श्वेत वर्ण के
प्रतीत हो रही है। इस वृक्ष के नीचे टूटे हुए हजारों फल वस्त्रों को चुना है।
पड़े हुए हैं। इन फलों को खाकर ही हम पूर्ण संतुष्ट हो लेश्याओं के स्वरूप को समझने के लिए जैन साहित्य सकते हैं। फिर वृक्ष, टहनियों और फलों को काटनेमें कई रूपक दिये हैं। उनमें से एक-दो रूपक हम प्रस्तुत तोड़ने की आवश्यकता ही नहीं। कर रहे हैं। छः व्यक्तियों की एक मित्र मंडली थी। एक प्रस्तुत रूपक५° द्वारा आचार्य ने लेश्याओं के स्वरूप दिन उनके मानस में ये विचार उद्बुद्ध हुए कि इस समय को प्रकट किया है। छ: मित्रों में मित्रों के परिजंगल में जामुन खूब पके हुए हैं। हम जाँय और उन णामों की अपेक्षा उत्तर-उत्तर मित्रों के परिणाम शुभ, जामुनों को भरपेट खायें। वे छहों मित्र जंगल में पहुँचे। शुभतर और शभतम हैं। क्रमशः उनके परिणामों में फलों से लदे हुए जामुन के पेड़ को देखकर एक मित्र ने संक्लेश की न्यूनता और मृदुता की अधिकता है । इसलिए कहा यह कितना सुन्दर जामुन का वृक्ष है ! फलों से प्रथम मित्र के परिणाम कृष्ण लेश्या वाले हैं दूसरे के नील लबालब भरा हुआ है। और फल भी इतने बढ़िया हैं लेश्या वाले, तीसरे की कापोत लेश्या, चतुर्थ की तेज कि देखते ही मुंह में पानी आ रहा है। इस वृक्ष पर चढ़ने लेश्या, पांचवें की पद्म लेश्या और छठे की शुक्ल की अपेक्षा यही श्रेयस्कर है कि कुल्हाड़ी से वृक्ष को जड़ लेश्या है।
४८ उत्तराध्ययन, ३४/२६-३० । ४. उत्तराध्ययन, ३४/३१-३२ । ५. आवश्यक, हरिभद्रीया वृत्ति, पृ० २४५ ।
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एक जंगल में डाकुओं का समूह रहता था। ये दूसरों को लूटकर अपना जीवनयापन करते थे । एक दिन छः डाकूओं ने सोचा कि किसी शहर में जाकर हम डाका डालें। वे छः डाकू अपने स्थान से प्रस्थित हुए। छः डाकूओं में से प्रथम डाकू ने एक गांव के पास से गुजरते हुए कहा - रात्रि का सुहावना समय है । गाँव के सभी लोग सोए हैं। हम इस गांव में आग लगा दें ताकि सोधे हुए सभी व्यक्ति और पशु-पक्षी आग में झुलस कर खत्म हो जायें उनके कन्दन को सुनकर बड़ा आनन्द आएगा।
1
दूसरे डाकू ने कहा- बिना को क्यों मारा जाय ? जो हमारा मानवों को ही मारना चाहिए।
तीसरे डाकू ने कहा- मानवों में भी औरतें और बालक हमें कभी भी परेशान नहीं करते। इसलिए उन्हें मारने की आवश्यकता नहीं । अतः पुरुष वर्ग को ही मारना चाहिए ।
चतुर्थ डाकू ने कहा- सभी पुरुषों को भी मारने की आवश्यकता नहीं है । जो पुरुष शस्त्रयुक्त हों केवल उन्हें मारना चाहिए ।
मतलब के पशु-पक्षियों विरोध करते हैं उन
पांचवें डाकू ने कहा- जिन व्यक्तियों के पास शस्त्र है किन्तु जो हमारा किसी भी प्रकार का विरोध नहीं करते, उन व्यक्तियों को मारने से भी क्या लाभ है
छठे डाकू ने कहा- हमें अपने कार्य को करना है। पहले ही हम लोग दूसरों का धन चुराकर पाप कर रहे है, और फिर जिसका धन हम अपहरण करते हैं, उन व्यक्तियों
५३
४]
के प्राण को लटना भी कहीं बुद्धिमानी है? एक पाप के साथ दूसरा पाप करना अनुचित ही नहीं बिलकुल अनुचित है ।
इन छहों डाकूओं के भी विचार क्रमशः एक दूसरे से निर्मल होते हैं, जो उनकी निर्मल भावना को व्यक्त करते हैं। ५१
उत्तराध्ययननियुक्ति में ५२ लेश्या शब्द पर निक्षेप दृष्टि से चिन्तन करते हुए कहा है कि लेश्या के नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव से चार निक्षेप होते हैं। नो-कर्म लेश्या और नो-अकर्म लेश्या ये दो निक्षेप और भी होते है। नो कर्म लेश्या के जीव नो-कर्म और अजीव नोकर्म ये दो प्रकार है । जीव नो-कर्म लेश्या भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक के भेद से वह भी दो प्रकार की है। इन दोनों के कृष्ण आदि सात-सात प्रकार हैं
1
अजीव नो-कर्म लेश्या द्रव्य - लेश्या के चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारक, आमरण, वादन की छाया रूप है। कितने ही आचार्यों का मन्तव्य है कि औदारिक, ओदारिक मिश्र, वैकिय, वैकिय मिश्र, आहारक आहारक- मिश्र, कार्मण काय का योग ये सात शरीर हैं तो उनकी छाया भी सप्तवर्णात्मिका होगी, अतः लेश्या के सात भेद मानने चाहिए । ५३
५१ लोक प्रकाश, सर्ग २, श्लोक ३६३-३८०१ ५२ जागग भविपसरीरा तबहरित्ता य साणो दुबिहा कम्मा नो कम्ने यानो कम्मे हुन् दुविहा उ ॥ ३५ ॥ जीवाणमजीवाणय दुविहा जीवाण होई नायव्त्रा । भवमभव सिद्धियाणं दुविहाणवि होई सत्तविहा || ३६ || अजीव कम्मनो दव्वलेसा सा दसविहा उनायव्वा । चंदाण य सूराण य गहगण णक्खत्ततारा ॥ ३७ ॥ आसरण छायणा दंशगाण मणि कामिणी णजालेसा । अजीव दव्वलेसा नायव्वा दसविहा एसा ॥ ३८ ॥
और
किसे भाव लेश्या कहें ?
लेश्या के सम्बन्ध में एक गम्भीर प्रश्न है कि किस लेश्या को द्रव्य लेश्या कहें क्योंकि आगम साहित्य में कहीं कहीं पर द्रव्य लेश्या के अनुरूप भाव परिणति बतायी गयी है, तो कहीं पर द्रव्य लेश्या के विपरीत भाव परिणति बतायी गयी है । जन्म
- उत्तराध्ययन, ३४, पृ० ६५०
पद
सप्तमी संयोगजा इयं च शरीरच्छायात्मका परिगृह्यते अन्येत्वौदारिकौ दारिकमि अमित्यादि भेदतः सप्त विधत्वेन जीवशरीरस्य तच्छायामेव कृष्णादिवर्णरूपां नोकर्माणि सप्त विधां जीव द्रश्य लेश्या मन्यते तथा ।
- उत्तराध्ययन ३४, टीका, जयसिंह सूरि, पृ० ३५०
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________________ से मृत्यु तक एक ही रूप में जो हमारे साथ रहती है वह पूर्ण करने वाला व्यक्ति असुरादि देव हो सकता है ? यह द्रव्य लेश्या है। नारकीय जीवों में तथा देवों में जो प्रश्न आगम मर्मज्ञों के लिए चिन्तनीय है। कहां पर लेश्या का वर्णन किया गया है वह द्रव्य लेश्या की दृष्टि द्रव्य लेश्या का उल्लेख है और कहां पर भावलेश्या का से किया गया है। यही कारण है कि तेरह सागरिया जो उल्लेख-इसकी स्पष्ट भेद-रेखा आगमों में नहीं दी गयी किल्विषिक देव हैं वे जहाँ एकान्त शक्ल लेश्यी हैं वहीं वे है, जिससे विचारक असमंजस में पड़ जाता है। एकान्त मिथ्यादष्टि भी हैं। प्रज्ञापना में ताराओं का वर्णन करते हुए उन्हें पांच वर्ण वाले और स्थित लेश्या ___उपर्यक्त पंक्तियों में जैन दृष्टि से लेश्या का जो रूप वाले बताया गया है / 54 नारक और देवों को जो स्थित रहा है उस पर और उसके साथ ही आजीवक मत में, बौद्ध लेश्या कहा गया है, सम्भव है पाप और पुण्य की प्रकर्षता मत में व वैदिक परम्परा के ग्रंथों में लेश्या से जो मिलता जुलता वर्णन है उस पर हमने बहुत ही संक्षेप में चिन्तन के कारण इनमें परिवर्तन नहीं होता हो। अथवा यह भी किया है। उत्तराध्ययन, भगवती. प्रज्ञापना और उत्तरवत्ती हो सकता है कि देवों में पर्यावरण की अनुकूलता के कारण शुभ द्रव्य प्राप्त होते हों और नारकीय जीवों में पर्यावरण साहित्य में लेश्या पर विस्तार से विश्लेषण है, किन्तु की प्रतिकूलता के कारण अशुभ द्रव्य प्राप्त होते हों। विस्तार भय से हमने जान करके भी उन सभी बातों पर वातावरण से वृत्तियां प्रभावित होती हैं। मनुष्य गति प्रकाश नहीं डाला है। यह सत्य है कि परिभाषाओं की और तिर्यंच गति में अस्थित लेश्याएं हैं। विभिन्नता के कारण और परिस्थतियों को देखते हुए स्पष्ट रूप से यह कहना कठिन है कि अमुक स्थान पर पृथ्वीकाय में कृष्ण, नील और कापोत ये तीन अप्रशस्त अमुक लेश्या ही होती है। क्योंकि कहीं पर द्रव्य लेश्या लेश्याएं बतायी गयी हैं। ये द्रव्य लेश्या हैं या भाव लेश्या ? की दृष्टि से चिन्तन है, तो कहीं पर भाव लेश्या की दृष्टि क्योंकि स्फटिक मणि, हीरा, मोती आदि रत्नों में धवल से और कहीं पर द्रव्य और भाव दोनों का मिला हुआ ती है, इसलिए द्रव्य अप्रशस्त लेश्या केसे सम्भव वर्णन है। तथापि गहराई से अनुचिन्तन करने पर वह है ? यदि भाव लेश्या को माना जाय तो भी प्रश्न है कि विषय पूर्णतया स्पष्ट हो सकता है। आधुनिक विज्ञान की पृथ्वीकाय से निकलकर कितने ही जीव केवल-ज्ञान को दृष्टि से भी जो रंगों की कल्पना की गयी है उनके साथ प्राप्त करते हैं तो पृथ्वीकाय के उस जीव ने अप्रशस्त भाव भी लेश्या का समन्वय हो सकता है इस पर भी हमने लेश्या में केवली के आयुष्य का बन्धन कैसे किया ? भवन- विचार किया है। आगम के मर्मज्ञ मनीषियों को चाहिए पति और वाण व्यन्तर देवों में चार लेश्याएँ हैं-कृष्ण, कि इस विषय पर शोध कार्य कर नये तथ्य प्रकाश में नील, कापोत और तेजो। तो क्या कृष्ण लेश्या में आयु लाएँ / 54 ताराओं, पञ्च वण्णीओ ठिपले साचारिणो। -प्रज्ञापना, पद। [ Ye