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और सोने की तरह पीत रंग प्रस्फुटित होता है। लालरंग से काट दिया जाय जिससे हम आनन्द से बैठकर खूब फल में उत्तेजना हो सकती है पर पीले रंग में कोई उत्तेजना खा सकें । नहीं है । पदमलेश्या वाले साधक के जीवन में क्रोध-मान- दसरे मित्र ने प्रथम मित्र के कथन का प्रतिवाद करते माया-मोह की अल्पता होती है। चित्त प्रशांत होता है। हुए कहा-सम्पूर्ण वृक्ष काटने से क्या लाभ है ! केवल जितेन्द्रिय और अल्पभाषी होने से वह ध्यान साधना सहज शाखाओं को काटना ही पर्याप्त है। रूप से कर सकता है।४८ पीत रंग ध्यान की अवस्था
तृतीय मित्र ने कहा-मित्र, तुम्हारा कहना भी उचित का प्रतीक है। एतदर्थ ही बौद्ध संन्यासियों के वस्त्र का
नहीं है। बड़ी-बड़ी शाखाओं को काटने से भी कोई रंग पीला है। वैदिक परम्पराओं के संन्यासियों के वस्त्र
फायदा नहीं है। छोटी-छोटी शाखाओं को काट लेने का रंग लाल है जो क्रांति का प्रतीक है और बौद्ध
से ही हमारा कार्य हो सकता है। फिर बड़ी शाखाओं भिक्षुओं के वस्त्र का रंग पीला है वह ध्यान का को निरर्थक क्यों काटा जाय? प्रतीक है।
चतुर्थ मित्र ने कहा-मित्र, तुम्हारा कथन भी मुझे षष्ठ लेश्या नाम शक्ल है। शुभ या श्वेत रंग समाधि युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता। छोटी-छोटी शाखाओं का रंग है। श्वेत रंग विचारों की पवित्रता का प्रतीक को काटने की कोई आवश्यकता नहीं है। केवल फलों है। शुक्ललेश्या वाले व्यक्ति का चित्त प्रशान्त होता है। के गुच्छों को ही तोड़ना पर्याप्त है। मन, वचन, काया पर वह पूर्ण नियन्त्रण करता है। वह पांचवें मित्र ने कहा-फलों के गुच्छों को तोड़ने से जितेन्द्रिय है ।४९ एतदर्थ ही जेन श्रमणों ने श्वेत रंग क्या लाभ है उस गुच्छे में तो कच्चे और पके दोनों को पसन्द किया है। वे श्वेत रंग के वस्त्र धारण करते ही प्रकार के फल होते हैं। हमें पके फल ही तोड़ना . हैं । उनका मंतव्य है कि वर्तमान में हम में पूर्ण विशुद्धि नहीं चाहिए । निरर्थक कच्चे फलों को क्यों तोड़ा जाय ? ... है, तथापि हमारा लक्ष्य है शुक्ल ध्यान के द्वारा पूर्ण
छठे मित्र ने कहा- मुझे तुम्हारी चर्चा ही निरर्थक विशुद्धि को प्राप्त करना। एतदर्थ उन्होंने श्वेत वर्ण के
प्रतीत हो रही है। इस वृक्ष के नीचे टूटे हुए हजारों फल वस्त्रों को चुना है।
पड़े हुए हैं। इन फलों को खाकर ही हम पूर्ण संतुष्ट हो लेश्याओं के स्वरूप को समझने के लिए जैन साहित्य सकते हैं। फिर वृक्ष, टहनियों और फलों को काटनेमें कई रूपक दिये हैं। उनमें से एक-दो रूपक हम प्रस्तुत तोड़ने की आवश्यकता ही नहीं। कर रहे हैं। छः व्यक्तियों की एक मित्र मंडली थी। एक प्रस्तुत रूपक५° द्वारा आचार्य ने लेश्याओं के स्वरूप दिन उनके मानस में ये विचार उद्बुद्ध हुए कि इस समय को प्रकट किया है। छ: मित्रों में मित्रों के परिजंगल में जामुन खूब पके हुए हैं। हम जाँय और उन णामों की अपेक्षा उत्तर-उत्तर मित्रों के परिणाम शुभ, जामुनों को भरपेट खायें। वे छहों मित्र जंगल में पहुँचे। शुभतर और शभतम हैं। क्रमशः उनके परिणामों में फलों से लदे हुए जामुन के पेड़ को देखकर एक मित्र ने संक्लेश की न्यूनता और मृदुता की अधिकता है । इसलिए कहा यह कितना सुन्दर जामुन का वृक्ष है ! फलों से प्रथम मित्र के परिणाम कृष्ण लेश्या वाले हैं दूसरे के नील लबालब भरा हुआ है। और फल भी इतने बढ़िया हैं लेश्या वाले, तीसरे की कापोत लेश्या, चतुर्थ की तेज कि देखते ही मुंह में पानी आ रहा है। इस वृक्ष पर चढ़ने लेश्या, पांचवें की पद्म लेश्या और छठे की शुक्ल की अपेक्षा यही श्रेयस्कर है कि कुल्हाड़ी से वृक्ष को जड़ लेश्या है।
४८ उत्तराध्ययन, ३४/२६-३० । ४. उत्तराध्ययन, ३४/३१-३२ । ५. आवश्यक, हरिभद्रीया वृत्ति, पृ० २४५ ।
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