Book Title: Labhodaya Ras
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 9
________________ 70 अनुसंधान-२५ तुम्ह वडे वयरागी तुम्ह पइ नाहीं दूक-रोस तुम्ह भाषत नाहीं मंत तंत जडी जोस ॥१०॥ वडे फकीर निरंजन साध तुं हउ नित जोग चित लायो खूदासुं नाहीं दूनीआं काम-भोग । हम जानत नी कइंसा तुम्ह आचार साही सभा सुणत हई प्रसंसा वारवार ॥१॥ हम बहुत खूसी हइ देखीत तुम्ह दीदार सुखिइं आए पइंडइ सुखी सहु तुम पीर वार । तिहां श्रीआचारजि धर्मदेसन दीध भविकजन केरा मनवंछित सहु सिध ॥२॥ अकबर केरा मनवंछित सहु सिध ते कहुं हुं कीनी परिइ कहता नावइ पार । ए गुरु दरिसणि थई दूरी मिटिउ दुखदाह कीउ जेणे श्रावक मलेच्छ मुगल पतिसाह ॥३॥ दुहा ॥ खूसी हुउ दिलीधणी, खूसी हुआ गुरुराज । उद्योत हुओ जगि जइनकु, सिधां मनवंछित काज ||४|| चालि ।। मनवंछित काज समारी, हरखिउ हीय हीरपटोधारी । सीख साही पासि तिहां मागइ, बहु नुबति नीकी बाजइ ।।५।। उपासरइ श्रीगुरु आवइ, आनंद सहु संघ पावइ । दीजइ हीर-चीर पटकूल, गंठउड़ा चूरी बहुमूल रूपानाणइ दुजणसाह, प्रभावना मांडिउ प्रवाह । ध्यन दिवस गिणुं ते लेखइ, एहवा आनंद ते देखइ ॥७॥ दुहा ॥ पणइ अवरि वली जे हुउ, ते सुणो चतुर सुजाण । तारातेज तिहां लगइ, जिहां नवि उग्गइ भाण ॥८॥ ॥६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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