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श्रीदयाकुशलकृत लाभोदय रास ॥
सं. विजयशीलचन्द्रसूरि
तपगच्छनायक श्रीविजयसेनसूरि महाराजना शाह अकबर साथेना मेळापने अने ते प्रसंगे थयेल जीवदयानां कार्योने केन्द्रमा राखीने रचवामां आवेलो आ रास पण त्रुटक छे, अने अद्यावधि अप्रगट छे. लगभग अज्ञात छे. 'सूरीश्वर अने सम्राट'मां मुनि विद्याविजयजीए आना विषे नोंध्यु होवानी स्मृति छे. आनी जेरोक्स पण शिवपुरी (म.प्र.)ना ग्रन्थसंग्रहमांथी ज प्राप्त थई होवानुं झांऱ्या स्मरण छे. आनी अन्य हस्तप्रति कशेय होवानुं जाणमां नथी.
कुल ९ पानांनी प्रतिमां ५-६-७ ए त्रण पत्रो छ ज नहि. तेथी रचना त्रुटक रूपमां ज उपलब्ध छे. कर्ता मेघविजय शिष्य पं. कल्याणकुशलजीना शिष्य पं.दयाकुशल मुनि छे, तेवं छेल्ली कडीओ जोतां स्पष्ट थाय छे. दयाकुशलजीए रचेल ‘पदमहोत्सव रास' (सं. १६८५) विषे तथा 'हीरसूरिस्वाध्याय' (प्रकाशित) विषे नोंध मळे छे. तेओनो सत्तासमय १७ मा शतकनो पश्चार्ध होय तेम पण ते नोंध परथी जणाय छे. आ रासमां रचनासमयनो निर्देश को नथी. छतां तेनी रचना विजयसेनसूरिमहाराजनी विद्यमानतामां ज थई होय; अथवा तो आ समग्र घटनाक्रमना कर्ता स्वयं साक्षी पण रह्या होय अने तेमणे आंखे देख्यो हेवाल आ रासरूपे लख्यो होय, तेवी शक्यता वधु लागे छे. .
रासनो आरंभ विजयसेनसूरिना देह-गुण-वर्णन करतां दूहाथी थाय छे. 'विजयवल्ली रास'मां वर्णव्या प्रमाणे अहीं पण वर्णन छ के, गुरु राधनपुरमा हता अने अकबरनुं तेडं आव्यु छे. कडी क्र. १२ थी २१ अकबरशाहना प्रताप वर्णन छे. अने कडी २३ थी २९मा लेभागु जोगीफकीरो प्रत्येनी शाहनी अरुचि वर्णववापूर्वक ३० थी ३९ मां 'हीरगुरु'ने याद करीने तेमना साचा संन्यासना शाहे करेला वखाण, बयान छे. छेवटे शाह शेख (अबुल फजल)ने 'हीरगुरु'ने मळवानी पोतानी इच्छा जणावे छे, त्यारे शेख हीरगुरुना तेमना जेवा ज श्रेष्ठ साधु-शिष्य 'विजयसेन नुं वर्णन करी
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तेमने बोलाववानी भलामण करे छे (४१-४२). शाह तत्काल बे मेवडा (खेपिया)ने राधनपुर संदेशो लखीने मोकले छे.
अहीं प्रतनां ३ पानां अनुपलब्ध होवाने कारणे सळंगसूत्र वर्णनमां मोटुं भंगाण पडे छे, अने धणीबधी महत्त्वपूर्ण वातो, संवादो, घटनाओथी आपणने वंचित रहेQ पडे छे. (त्रुटित कडी ४४ थी ९२).
हवे ९३मी कडीमां सीधुं लाहोरमां पधारेला गुरुना सामैयानुं वर्णन जोवा मळे छे. शाहने खबर पहोंचतां ज ते जाते 'काश्मीरी मोहल्ला' सुधी सामो लेवा आवे छे (९९) ते वात खूब नोंधपात्र लागे छे. पछीथी (सभामां पहोंचीने) शाह अने गुरु वच्चे थयेल संवाद नोंधवामां आव्यो छे. ते संवादने छेडे कविए गुरुना प्रभाव उपर वारी जईने गुरुप्रशस्तिरूप जे बे पंक्तिओ लखी छे, ते तो अत्यन्त मीठी अने प्रेरणाप्रद छ :
"ए गुरु दरिसणि थई दूरी मिटिउ दुखदाह
कीउ जेणे श्रावक मलेच्छ मुगल पतिसाह" __ आ पछी गुरु, उपाश्रये आगमन, संघनी खुशाली वगेरे वर्णव्या पछी, जैनद्वेषी जनोना कावादावा, विवादो अने तेना गुरुए करेला सुयोग्य समाधान-शमननी वात संक्षेपमा ज वर्णवाई छे. १०९-१७ कडी १२०-२१ मां शेखे महोत्सव मंडावीने केटलाक खास मुनिवरोने उपाध्याय पद अपाव्यानो उल्लेख छे.
आ पछी 'विजयहीर-विजयसेन'नी प्रेरणाथी बादशाहे जीवदयानां तथा धर्मरक्षानां जे कार्यो करेलां तेनी नोंध आपवामां आवी छे. अने ओ साथे ज रासनी पूर्णाहुति थाय छे. कर्तार्नु प्रयोजन उपरोक्त वातोनुं वर्णन ज मात्र करवानुं छे, ते आ उपरथी सिद्ध थई जाय छे.
विजयसेनगुरुना शिष्य मेघ मुनि छे, तेमना शिष्य पं. कल्याणकुशल छे (१३७), तेमना पिता 'शाह लटकण' तथा माता 'लीलादे' (१३८) होवानुं पण सूचवायुं छे; अने तेमना शिष्य दयाकुशले आ वृत्तान्त कहो होवार्नु सूचवी रास पूर्ण थाय छे.
आ रास अहीं प्रथम वार प्रगट थाय छे तेनो जेटलो हर्ष छे, तेटलो
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॥३॥
॥४॥
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अनुसंधान-२५ ज, अधूरो मळवानो खेद छे. कोईने पण आनी अन्य प्रति क्यायथी जडी आवे तो जाण करवा तथा उपलब्ध कराववा नम्र विनति छे.
श्रीलाभोदयरास ॥ पं. श्रीकल्याणकुशलगुरुभ्यो नमः ।।
सरसति मति अतिनिरमली, आपु करी पसाय । जेसंगजी गुण गावतां, अविहड वर दे तु माय ॥१॥ नडोलाई नगरी भली, धन्य धन्य श्रीओसवंस । साह कर्माकुलि चंदलु, सुर नर करइं प्रसंस ॥२॥ धन कोडमदे जनमिउ, तपगछनऊ सुलतान । अधिक अधिक तेजिई सदा, वाधइ जुगहप्रधान जस मुख सारद चंदलु, जीह अमीनु घोल । दंतपंति हीरा जिसी, अधर सो कुंकुमारोल अति अणीआली आंखडी, वांकी भमह कमान । सरल सकोमल नासिका, मोहे भविक सुजान गजगति चालिई चालतु, सकल कलागुण पूर । गौतमसम गुरु जगि जायो, जास अनोपम नूर ॥६॥ श्री गुरु हीर सदा जयो, तास तणु ए सीस । रास रचुं रलीआमणु, प्रणमी जिन चउवीस
चुपई ॥ विनय विवेक विचार सुजाति, कहीइ देस चतुर गूजराति । तिहां राधनपुर नयर प्रसिध, लोक वसई पुन्यवंत समरिध ॥८॥ तिहां गुरु गुणवंत करई चुमास, पुरई भविजन केरी आस । श्रीगुरु हीर जेसंगजी वली, एक दुधमाहे साकर भली ॥९॥ तिउं सोहइं गुरु-गुरुनी जोडि, मंगल महानंद पूरइ कोडि । उच्छव आनंद तिम उद्योत, श्रीगुरुतेजे सुखी सहु लोक ॥१०॥
॥५॥
॥७॥
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दूहा ॥ अवसरि एणइ अतिबली, अकबर साही सुलतान । श्रीगुरु रंगि बोलाविया, ते सुणो भविक सुजाण ॥११॥
ढाल ॥ अतिहठी अकबरसाह कह्यवइ, दुजु दुनीमई उपम को नावई । कोओ नाहीं अकबर बलि पूजइ, नाम सुणता वयरी तन धूजइ । दुरि कीया वयरी मद मोड, विषम लीओ तेणई कोट चित्रोड । कुंभलमेर अजमेर समाणु, जोधपुर जेसलमेर ए जाणु ॥१२।। जुनु गढ लीउ सूरत कोट, भूरुअछकोट लीउ एकदोट । मांडुंगढ लीउ बल मांडी, हाडा गया रणथंभर छांडी ॥१३॥ लीयो सीयालकोट रोहीतास, अनेक विषमगढ पार न जास । सो लीया अकबरि एक नीसाण, हवे सुणो देसना नाम सुजाण ।।१४।।
ढाल ॥ गउड बंगाल तिलंग वंग अंग घोडा घाट दुलखु ओडीसु खंधारदेस जाकी विसमी वाट । कांमरु कमनाबल देस परबत सवालाख मगध कासी कासमीर देस तिहां झाझी दाख सिंध कच्छ जे नगरथट्ठउ काबिल खुरासाण दिल्लीमंडल मेवात देस मघलइ साही आण । मरहठ मेवाड मारुआडि मालव गूजराति सोरठ कुंकण दखिण देस सहू अकबर हाथि निजबलि अकबरि देस लीआ ताकु लहुं पार कउतिग कारणि देस नाम कहीआं दोए-च्यार । रथ सुखासण पालखी परतखि चक्रवरति पुन्य विवेकी मु(सु) सारबुधि अडीग्ग आछी मति
॥१६॥
॥१७॥
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॥२०॥
अनुसंधान-२५ ताजा तूरीय तोखार सार जाकु न लहुं पार मोटा मयगल मलपता ए दीसइ केइ हजारि । सेवइ जासु सुलतान खांन उंवरा राय राण रोमी फीरंगी हींदू हठी मूलां काजी .पठाण
॥१८॥ अइसु दूनिमइ कोउ नाही लोपइ अकबर लीह विधिना एही ज आप घड्यो अडीग्ग अबीह जाकइ तेजि सहू लोक सुखी परजा प्रतिपालइ चाड चबोड अन्याई चोर धूतारा टालइ
॥१९॥ आनंद अधिक सुगाल सदा मोटु वडभागी लाहोरनगर मई लील करइ अकबर सोभागी
दुहा ॥ परवतसिर जिउं मेरगिरि, ग्रहगण माहे चंद । सेषनाग सहू नाग सिरि, जिउं सुरवरमई इंद सकल छत्रपति तिलकसम, एकदिन सभा मझारि । बोलइ अधिक उच्छाहसुं, वचन अमरीत []सधार
॥२२॥ ढाल ॥ साही कहइ सुणो वात इयारां, दोउ दूनीमई वात आसकारां । एक भले दूनीआंदार भोगी, दूजे फकीर निरंजन योगी ॥२३॥ जोगी सोई जे जोग अभ्यासइ, फूटी कउडी न राखइ पासइ । चित्त लगाई निरंजन धावइ, भलु बूर सुणी खेद न पावइ ॥२४।। जाकइ जोरंसुं नाहीं टूक संग, एक निरंजन सेती रंग । खोजी थाई बहु खोज करायो, सांचु जोगी कोए नजरि न आयो ॥२५॥ बहु उवोलइ इउं अकबरभूप, जोई जोउं सोउ रसरूप । सेष दरवेस सोफी इउ चालइ, हीक्क कहई उर कूतुक उच्छालई ।।२६।। भंगि पाई होवई अति लाल, संखला पहरी दीसई विकराल । नामि जोगी फूनी इयाही ज भेष, नामि सन्यासी सन्यास न रेख ॥२७||
॥२१॥
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।।२८।।
खाजई पीजइ कीजई तीय भोग, बोधा बोलई जगि इयाही ज जोग । पंच वखत नमाज गुजारई, छरीय लेई बहु जीव संहारई काजी मूलां कहीइं सुणो साह, खुदाई इयाही फूरमाया राह । साही कहइ ए सब हई जूठे, खुदाय थकी चालइ अ पूठे । इउं करतां किउं पाईइ दीन, जाकु मन दूनीआसुं लीन
॥२९॥
दुहा ॥
ए सव रजब जूठे कीए, वडवखती कहइ मीर । दुनीआं दीपक एक मइ, श्रवणि सुणे गुरु हीर सो हम वेगि बोलाईउ, देखि तास दीना (दा) र । कहणी - करणी सांचउ, जोगीसर संसार
ढाल ||
ताकी करणी बहुत कठीन, किन पई कही जाय जीव न मारई ।
बाल उचावई धरम जाणि अ- सेह इं उही (?) देस विलाति सहु गाम फीरइं प्रतिबंध न मोही । सत्तु - मित्त समचित गिणई, कीसहिं न दीइं दोस महिनइ दस रोजा करइ, न करइ टूक रोस
जूठ नहीं, तीय सहु जिसी माय, कउडी न राखई पास एक कर खुदाकी । लेत नाही काछू गयर दिउ, परवाह न कीसकी खाना खावइ एक बेर, पीवइ ताता नीर बाजी तमासु खेल नाहीं ध्यावर एक पीर ।
हरी तरकारी नहीं थालइं नाहीं लेत तंबोल
नांगे पाउं उ फीरई, सदो बहु (सदोस हु?) बोलइ न बोल ||३२||
भुई सोवइ धूपकांलि धूप सीतकालिई सीत समतिणमणि नाहीं क्रोध लोभ कामवयरी जीत । पाढ पढइ गुरु ध्यान धरई होवइं गुणरागी
||३०||
॥३१॥
॥३३॥
॥३४॥
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॥३९॥
अनुसंधान-२५ टाणुटुंणु उ करत नाही, मंत तंत जडी दारु सबाब होवइ सोइ कथन कथई नाही कि न सारु ||३५||
दूहा ॥ वली निजमुखि साही कहइ, अइसे वचन अनेक । इया यूदाई तई निसाही, कीआ सो हीर जु एक ३६।। एक ज हीर दीदार थई, हुया हम बहुत सबाब । मरती मछी मनय कीई, बकस्या डांवर तलाव ॥३७।। भादं नव रोज जनमदीन, जीव मरता मम(न)य कीध । पंखी छूटे उस वचन थई, बंध पलासी दीध ॥३८॥ हीर चीरमणिमुद्रिका, देस मूलक पुर गाम । लालची देखाई घणी, गुरुजी कइ नाही काम साही कहइ गुरु हीरजी, दरसण देखण की चाय । जइ सेषजी तुम्ह कहु कुली, जइ बहु डबोलाइ ॥४०॥
ढाल ॥ सेषजी इउ बोलइ साही सुणो अरदास तुम्ह जानत नी कई पंथ उंदाका उदास । करणी सी पालई उर भए उ वृध कइसइ करि आवई सेषई उत्तर दीध ॥४१॥ जइ चाहु बोलाए तु, एक अरज हमारी आलमपनां सलामत को मेटइ दोही तुहारी । गुरु अपनी बराबरि कीआ एक सिष्य सुजाण साही ताकुं बोलायो वेगि लिखि ऽह(फ)रमान ॥४२।। ए वात सुणी तब साही खूसी बहु मानी श्रीविजयसेनसूरि सांचे हई गुरुग्यानी । मेवड़े दोउ पठए साही लिखि फूरमान राधनपुर आए जिहां गुरु गुणह निधान
॥४३॥
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तुम्ह गुन रंज्यो इह दिल्लिपति पतिसाह जाकइ राति . . . . . . . . . . .
(पत्र ५ थी ७ नथी. प्रति खण्डित)
॥९३॥
॥९४॥
॥२५॥
॥१६॥
इणि परिई बहुत मंडाण, सांम्ह संघ सुजाण अबीर लाल गुलाल तोरण वनरमाल पूजा नवे अंगे कीजई, दान जाचकजन दीजई देखइं चतुर मिली थोक, करतिकि मोह्या ए लोक इणि परिइं बहुत दिवाजइ, आया दिल्ली दरवाजइ । श्रीगुरु वंदना निहालई, पू(दू)रीत हु(दु)रि पखालइ श्रीगुरु रंगि सधारई, लाहोरमाहे पधारइं नगरी सारी सिणगारी, भलइ आयो हीर पटोधारी
दुहा ॥ ईरजासुमतिइं चालतु, बोलइ जुगहप्रधान । पहिलई तिहां हम जाएसु, जिहां अकबर सुलतान
ढाल ॥ श्रीगुरु दरबारिइं आवई मनि नइ रंगि समतारस-रागी ऊल्हट अतिघण अंगि । वेगि खवरि करावी अकवर साहीकु एह आए हई गुरुजी खूसी बोलायौ तेह ॥९८६ साही अधिक विवेकी आचारजि पधरावइ कासमीरी महुलिई साम्हु दिलीपति आवइ । धर्मलाभ सुगुरु दिई आणी मनि उछाह तपगछपति सेती बोलइ इडं पतिसाह "चंगे हउ गुरुजी चंग हइं गुरु हीर आलस सारी मई कोउ नाहीं तुम्हसा पीर ।
॥९७॥
॥९९॥
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अनुसंधान-२५ तुम्ह वडे वयरागी तुम्ह पइ नाहीं दूक-रोस तुम्ह भाषत नाहीं मंत तंत जडी जोस ॥१०॥ वडे फकीर निरंजन साध तुं हउ नित जोग चित लायो खूदासुं नाहीं दूनीआं काम-भोग । हम जानत नी कइंसा तुम्ह आचार साही सभा सुणत हई प्रसंसा वारवार ॥१॥ हम बहुत खूसी हइ देखीत तुम्ह दीदार सुखिइं आए पइंडइ सुखी सहु तुम पीर वार । तिहां श्रीआचारजि धर्मदेसन दीध भविकजन केरा मनवंछित सहु सिध
॥२॥ अकबर केरा मनवंछित सहु सिध ते कहुं हुं कीनी परिइ कहता नावइ पार । ए गुरु दरिसणि थई दूरी मिटिउ दुखदाह कीउ जेणे श्रावक मलेच्छ मुगल पतिसाह ॥३॥
दुहा ॥ खूसी हुउ दिलीधणी, खूसी हुआ गुरुराज । उद्योत हुओ जगि जइनकु, सिधां मनवंछित काज ||४||
चालि ।। मनवंछित काज समारी, हरखिउ हीय हीरपटोधारी । सीख साही पासि तिहां मागइ, बहु नुबति नीकी बाजइ ।।५।। उपासरइ श्रीगुरु आवइ, आनंद सहु संघ पावइ । दीजइ हीर-चीर पटकूल, गंठउड़ा चूरी बहुमूल रूपानाणइ दुजणसाह, प्रभावना मांडिउ प्रवाह । ध्यन दिवस गिणुं ते लेखइ, एहवा आनंद ते देखइ ॥७॥
दुहा ॥ पणइ अवरि वली जे हुउ, ते सुणो चतुर सुजाण । तारातेज तिहां लगइ, जिहां नवि उग्गइ भाण ॥८॥
॥६॥
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माखी त्यजइ जीउ अप्पणपु, पणि देवइ परदुख । दुरजन दहई मन अप्पणां, देखि परायां सुख ॥९॥
चालि ॥ ब्राह्मणे जाई चूगली कीधी, मूकी मइदा मलीदीधी । साही जाकुं बहुत तुम्ह मानु, कीछू उहांकी करणी जानु ॥१०॥ मानत नाही सूरज गंगा, उर श्रीपरमेसर चंगा । नाही दंडवरतकी वात, पापी चूगले घाली घात
॥११॥
दुजन कर तन वेवही, सनमुख लेत संताप । गुरुड बरावरि किउं होवइ, जुरे भलेरा साप
॥१२॥ चालि || जेसंगजी साही हजूरि, आवइ वली चढतइ नूरि । एक सीह नइ पाषर घाली, किउं डरइ हिरणकी फाली ॥१३।। सूभट सूणी रणतूर, किउं झाल्या रहई तिहां सूर । । दुसमन जे विसिमसि करता, - सा कीदा - फिरता १४|| ते कीआ जिउं आटा माहे लूंण, तुझ विण समझावत कुंण । वाद हुउ साही हजूरि, जिता श्रीविजयसेनसूरि ॥१५॥ ब्राह्मणकी करइ लोक हासी, बोल बोल्या किउं न विमासी । हुआ ते हाकावीका, पडीआ दुसमन सहु फीका एक एककुं इउं समझावई, अपनु कीउ सहु कोए पावइ ॥१७॥
दुहा ॥ जय जय वाद वरी तिहां, श्रीगुरु मन उल्हासि । श्रीसंघ अतिआग्रह थकी, लाहोरि करई चउमासि ॥१८॥ शेषजी श्रीगुरुकुं कहइं, भल सिष्य तु हीरा भाण । मलेच्छ करें डेकाविली, सो किआ चतुर सुजाण ॥१९।।
॥१६॥
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चालि ॥
गुरु का हमारा कीजइ, उपाध्याय पदवी दीजइ । साही अकबर दिउ खताब, मनि जाणी बहुत सबाब ||२०||
मुहुरत भलु दिन लीजइ, उपाध्याय पदवी दीजइ । महोछु करइ सेष सुजाण, द्रव्य खरचइ बहुत मंडाण ॥ २१ ॥
दु
चूआ चंदन छांटणा, श्रीफल उ तंबोल ।
जाचिक अजाची कीया, आणी सेषि उलोल ॥२२॥ चालि ॥
मनि आणी अति उलोल, सेष करइ सबल रंगरोल । उपाध्याय पदवी द्यावी, जगमई जसपडहु वजावी
अकबर सहगुरुकुं बकसइ, ते सुणतां हीयडुं विकसय । नगरथठउ सिंध कच्छ, पांणी बहुला जिहां मच्छ
जइ गुरु सांचा निसप्रही, तु मागई अभयदांन । साही पासि करावीया, एह अडीग्ग फूरमान ||२७||
चालि ॥
अनुसंधान-२५
प्रमाण ।
इय बोलइ साही सुजाण, गुरु जेसंग अकबर साही, दुजेउं अविचल पतिसाही जिहां मेर जलही सूरचंद, तिहां प्रतिपु एह मुणिंद । साधु साधवी श्रावक श्रावी, उदयवंत सुगुरु पद पावी करतव्य जे अकबर कीधां, सहु जाणे लोकप्रसिद्धां जगतगुरु दीधुं नाम, छ मास अमारि फूरमान
॥२५॥
जिहां हुता बहुत सिहार, ध्यन ध्यन सहगुरु उपगार । च्यार मास को जाल न घालइ, वसेषिरं वली वरसालइ गाय मरती मनय सहु कीधी, दिन बार अमारि वर दीधी ||२६|| दुहा ॥
-
॥२३॥
||२४||
||२८||
॥२९॥
||३०||
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॥३१॥ ॥३२||
॥३३॥
॥३४॥
॥३५॥
॥३६॥
सेतुंजादिक तीर्थ जेह, वकसइ सहगुरुकुं तेह । जीजीउ दंड दोर जगाति, अकबरसाही कइ नहीं वात जोर जूलम न कीजइ जाकइ, हुउ ए अधिक इसा कइ भोगीजन करु बहु भोग, आतम साधउ जोग । देस नगर पुर गाम, सुखी जिहां जिहां अकबर नाम तेह सहगुरुनउ उपदेस, समुअरइसुं सदा वंछेसि । चउथउ आरु परतख्य दीसइ, पूजीजइ जिन चउवीसइ उछव होवइ नित झाझा, जिनसासनि बहुत दिवाजा श्रीविजयसेनसूरिंद, चीर प्रतिपउ महामुणिंद । जस गुणकु न लहुं पार, सोहम जंबू अवतार सकलपंडित सिरताज, कल्याणकुशल गुरुराज । न्यानी गुणवंत मुनीश, श्रीमेहमुनींदकु सीस
दूहा ॥ साह लटकण सुत गुणनिलु, लीलादे जसमाय । कल्याणकुशल गुरु भेटतां, दारीद दुरि जाय
चालि ॥ अहनिसि जपतां गुरु नाम, सीझइ मनवंछित काम । कहइ दयाकुशल तस सीस, सुप्रसन सहगुरु निसदीस
इति श्री लाभोदयरास समाप्तं ॥
ग्रंथाग्रं २५१ ॥
॥३७||
॥३८॥
॥३९॥
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________________ 74 अनुसंधान-२५ कठिन शब्द कोश 19 कडी क्र. 12 दुनी चाड चबोड डवोलइ बाल उचावई विलाति रोजा समतिणमणि टाणुटुंणु सबाब मनय दुनिया चाडी चपाटी. करनारा डोळg (?) - विचार वाळ खेंचावे - (केशलोच क्रिया) विलायत-विदेश उपवास तृण-मणिमां समदृष्टिवाळा कामण टुमणना अर्थमां स्वभाव (वस्तुस्थिति)(?); मालसामान मनाई उनहाका - उनका (?) द्विधा ईर्यासमिति (जैन परिभाषानो शब्द) दुःख-रोष रजा सरस नोबतो उपाश्रये मर्यादा (?) दंडवत् (?) 97 41 उंदाका दोही ईरजासुमति 100 दूक-रोस 105 सीख नुबति नीकी उपसरइ 110 मइदा दंडवरत 119 डेकाविली 121 महोछु 122 उलोल 111 महोच्छव उल्लास