________________
॥३॥
॥४॥
64
अनुसंधान-२५ ज, अधूरो मळवानो खेद छे. कोईने पण आनी अन्य प्रति क्यायथी जडी आवे तो जाण करवा तथा उपलब्ध कराववा नम्र विनति छे.
श्रीलाभोदयरास ॥ पं. श्रीकल्याणकुशलगुरुभ्यो नमः ।।
सरसति मति अतिनिरमली, आपु करी पसाय । जेसंगजी गुण गावतां, अविहड वर दे तु माय ॥१॥ नडोलाई नगरी भली, धन्य धन्य श्रीओसवंस । साह कर्माकुलि चंदलु, सुर नर करइं प्रसंस ॥२॥ धन कोडमदे जनमिउ, तपगछनऊ सुलतान । अधिक अधिक तेजिई सदा, वाधइ जुगहप्रधान जस मुख सारद चंदलु, जीह अमीनु घोल । दंतपंति हीरा जिसी, अधर सो कुंकुमारोल अति अणीआली आंखडी, वांकी भमह कमान । सरल सकोमल नासिका, मोहे भविक सुजान गजगति चालिई चालतु, सकल कलागुण पूर । गौतमसम गुरु जगि जायो, जास अनोपम नूर ॥६॥ श्री गुरु हीर सदा जयो, तास तणु ए सीस । रास रचुं रलीआमणु, प्रणमी जिन चउवीस
चुपई ॥ विनय विवेक विचार सुजाति, कहीइ देस चतुर गूजराति । तिहां राधनपुर नयर प्रसिध, लोक वसई पुन्यवंत समरिध ॥८॥ तिहां गुरु गुणवंत करई चुमास, पुरई भविजन केरी आस । श्रीगुरु हीर जेसंगजी वली, एक दुधमाहे साकर भली ॥९॥ तिउं सोहइं गुरु-गुरुनी जोडि, मंगल महानंद पूरइ कोडि । उच्छव आनंद तिम उद्योत, श्रीगुरुतेजे सुखी सहु लोक ॥१०॥
॥५॥
॥७॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org