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अनुसंधान-२५ टाणुटुंणु उ करत नाही, मंत तंत जडी दारु सबाब होवइ सोइ कथन कथई नाही कि न सारु ||३५||
दूहा ॥ वली निजमुखि साही कहइ, अइसे वचन अनेक । इया यूदाई तई निसाही, कीआ सो हीर जु एक ३६।। एक ज हीर दीदार थई, हुया हम बहुत सबाब । मरती मछी मनय कीई, बकस्या डांवर तलाव ॥३७।। भादं नव रोज जनमदीन, जीव मरता मम(न)य कीध । पंखी छूटे उस वचन थई, बंध पलासी दीध ॥३८॥ हीर चीरमणिमुद्रिका, देस मूलक पुर गाम । लालची देखाई घणी, गुरुजी कइ नाही काम साही कहइ गुरु हीरजी, दरसण देखण की चाय । जइ सेषजी तुम्ह कहु कुली, जइ बहु डबोलाइ ॥४०॥
ढाल ॥ सेषजी इउ बोलइ साही सुणो अरदास तुम्ह जानत नी कई पंथ उंदाका उदास । करणी सी पालई उर भए उ वृध कइसइ करि आवई सेषई उत्तर दीध ॥४१॥ जइ चाहु बोलाए तु, एक अरज हमारी आलमपनां सलामत को मेटइ दोही तुहारी । गुरु अपनी बराबरि कीआ एक सिष्य सुजाण साही ताकुं बोलायो वेगि लिखि ऽह(फ)रमान ॥४२।। ए वात सुणी तब साही खूसी बहु मानी श्रीविजयसेनसूरि सांचे हई गुरुग्यानी । मेवड़े दोउ पठए साही लिखि फूरमान राधनपुर आए जिहां गुरु गुणह निधान
॥४३॥
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