Book Title: Kya Shastro Ko Chunoti Di Ja Sakti Hai Shanka Samadhan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Z_Pragna_se_Dharm_ki_Samiksha_Part_02_003409_HR.pdf

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Page 10
________________ कहीं अदृश्य लोक में! जब यह गंगा नहीं तो इसमें मिलने वाली यमुना भी यह नहीं, कोई और है, सरयु भी कोई और है। इसी प्रकार गंडक भी और है, कोशी भी कोई और ही है। सब कुछ और हैं, यह नहीं हैं। फिर तो हस्तिनापुर, वाराणसी और पाटलिपुत्र आदि भी, जो इतिहास में गंगा तट पर बताये गए हैं, कोई और ही हैं, कहीं और ही अदृश्य जगह में हैं। यह और का सिलसिला इस गति से बढ़ रहा है कि यदि संभले नहीं तो यह हमें कहीं का नहीं छोड़ेगा । हमारा मजाक उड़वायेगा, हमारे धर्म को बुद्ध बनायेगा । मैं नहीं समझता, इस प्रकार व्यर्थ की मनगढंत बातें करने से धर्म का गौरव कैसे बढ़ता है, धर्मशास्त्रों की प्रतिष्ठा एवं श्रद्धा कैसे सुरक्षित रहती है ? प्रश्न - आप चन्द्रप्रज्ञप्ति आदि कुछ सूत्रों को पापश्रुत कैसे कहते हैं? पूज्य श्री हस्तीमलजी महाराज तो इससे इन्कार करते हैं। उत्तर - चन्द्रप्रज्ञप्ति आदि ज्योतिष ग्रन्थों को मै । कहाँ पापश्रुत कहता हूँ? आपके हमारे वे आगम कहते हैं। समवायांग सूत्र कहता है, उत्तराध्ययन सूत्र कहता है ओर प्रतिदिन सुबह-शाम पढ़ा जाने वाला आवश्यक सूत्र कहता है । ' मैंने तो उसे ही दुहराया है, जो हमारे ये प्राचीन आगमकार कह गये हैं। यदि इस सम्बन्ध में कुछ उपालम्भ देने जैसा है, तो वह मुझे क्यों दें, उन आगमकारों को दें, जिन्होंने ज्योतिष आदि से संबंधित श्रुत को पापश्रुत कहा है। मेरा तो इस सम्बन्ध में यही कहना है कि जब आगम के उल्लेखानुसार ज्योतिष ग्रन्थ पापश्रुत हैं तो फिर चन्द्रप्रज्ञप्ति भी एक ज्योतिष ग्रन्थ है, उसमें आध्यात्मिकता एवं धार्मिकता का उल्लेख अंश मात्र भी नहीं है, अतः वह भी पापश्रुत की ही कोटि में आता है। सत्य - सत्य है, उसकी दृष्टि में अपना पराया कुछ नहीं होता। यह नहीं हो सकता कि दूसरों के ज्योतिष ग्रन्थ पापश्रुत हैं और हमारे धर्मश्रुत हैं। आगमों के ही उल्लेखों से जब यह निश्चित है कि ज्योतिषग्रन्थ पाप श्रुत हैं, तब वीतराग भगवान् उनके उपदेष्टा कैसे हो सकते हैं? वीतराग तो वीतराग भाव का ही उपदेष्टा हो सकता है, जो जैसा है, वह वैसा ही तो उपदेश देगा। अपनेसे विपरीत कैसे उपदेश दे सकता है? एक ओर वीतराग भगवान् ज्योतिष को पापश्रुत बताएँ और दूसरी ओर उसी का विस्तार से वर्णन करें, उस 42 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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