Book Title: Kundalini yoga Ek Vishleshan
Author(s): Kripalvanand
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

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Page 10
________________ १८० श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड अंग उससे दूर हो जाता है, उसी प्रकार अवांछनीय विषय-सम्बन्ध को रोकने के लिए उस इन्द्रिय को सिकोड़ा जाता है। पाँचों इन्द्रियों को सिकोड़ने के पश्चात् किसी मन्त्र बीज अथवा आराध्य देव-गुरु के बिम्ब पर मन को लगाया जाता है। मन के उस बीज पर स्थिर होने के बाद प्रत्याहार सिद्ध होता है। प्रत्याहार को सिद्ध किये बिना जो धारणा-ध्यान किये जाते हैं वे आत्माहीन अचेतन शरीरतुल्य हैं। ऐसी अवस्था में समाधि की तो सम्भावना ही नहीं है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-इन पाँच विषयों के पृथक्-पृथक् अथवा समूहगत प्रत्याहार करते समय क्रमश: कर्ण, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और नासिका के द्वार बन्द अथवा मुक्त रखने पड़ते हैं। (१) कर्ण का प्रत्याहार-कर्ण के प्रत्याहार में नेत्रों के द्वार बन्द करने की आवश्यकता नहीं होती, किन्तु कर्ण इन्द्रिय का प्रत्याहार उत्तम हो और चित्त भी बहिर्मुख न हो इसलिए नेत्रों के द्वार बन्द किये जाते हैं । यदि एक इन्द्रिय के प्रत्याहार में दूसरी इन्द्रिय का प्रत्याहार राहायक बनता हो तो उसकी सहायता लेने में भी किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं है। प्रत्याहार के समय बाह्य वातावरण में उठने वाली विविध ध्वनियों द्वारा और दृष्टिगोचर होने वाले विविध दृश्यों द्वारा मन में जितने विक्षेप होते हैं उतने विक्षेप स्पर्श, रस और गंध द्वारा नहीं होते। अतः कर्ण और नेत्र के प्रत्याहार आरम्भ के साधकों को सरल एवं प्रिय प्रतीत होते हैं। इन दोनों प्रत्याहारों की विशिष्टता यह है कि इनमें जिस इन्द्रिय के द्वारों को बन्द रखना होता है, उस इन्द्रिय के द्वारों को बन्द रखकर गृहीत ध्यान में आसन परिवर्तन भी किया जा सकता है । इस प्रत्याहार में मन को एक ही इन्द्रिय अथवा ध्येय में केन्द्रित करना पड़ता है। जब श्रमित शरीर एक प्रतिकुल अवस्था का परित्याग करके दसरी अनूकल अवस्था प्राप्त करने की प्रवृत्ति करता है तब उसको रोकना नहीं चाहिए, क्योंकि साधक को प्रत्याहार की अवस्था में आसन की चिन्ता में नहीं पड़ना चाहिए । शरीर को सम्पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करके ही ध्यान करना चाहिए। "ध्यान और प्रत्याहार में क्या अन्तर है ?" प्रत्याहार ध्यान की ही एक निम्न अवस्था है। इसमें प्राण और इन्द्रियों की प्रधानता और मन की गौणता होने के कारण इन्द्रियों और प्राण को अन्तर्मुख बनाने के लिए आयास किया जाता है। ध्यान में प्राण और मन की प्रधानता और इन्द्रियों की गौणता होने के कारण प्राण और मन को स्थिर करने के लिए आयास किया जाता है। स्वानुकूल आसन पर बैठकर, दोनों नेत्रों को दोनों हाथों की तर्जनी और मध्यमा अंगुलियों से बिना भार दिये दबाकर तथा वाम-दक्षिण कर्णों के छिद्रों में वाम-दक्षिण हाथों के अंगूठों को दबाकर अनाहतनाद श्रवण करने का आयास करना चाहिए। दोनों हाथों की अनामिका अंगुलियाँ नासिका के नीचे उपरि-ओष्ठ के ऊर्ध्वभाग पर और कनिष्ठिका अंगुलियाँ निम्न-ओष्ठ के अधोभाग पर रखना चाहिए। इस प्रक्रिया को शब्द का प्रत्याहार, नाद समाधि अथवा नादानुसन्धान कहते हैं। इसमें दृष्टि भ्रमध्य में होती है और मस्तक आकाश की ओर होता है। कर्ण के प्रत्याहार की यह विधि 'क्रियायोग' की है। कर्ण का यह प्रत्याहार भक्तजन भाव की दृष्टि से करते हैं। वे कर्णों के छिद्रों में न तो अंगूठों को दबाते हैं और न रुई ही डालते हैं। उनको वैसा करना आवश्यक प्रतीत नहीं होता। वे कर्णों में अत्यन्त आतुरता उत्पन्न करके एकाग्रचित्त से सूशील सन्त के मुख से पुराणवर्णित भगवान की अवतार लीलाओं को श्रवण करते हैं अथवा भगवद् भजन को सुनते हैं। यह प्रथम सोपान है। प्राणोत्थान के पश्चात वे भी कर्णों के द्वारों को बन्दकर अन्तर्नाद सुनने का आयास करते हैं। (२) त्वचा का प्रत्याहार-समग्र शरीर त्वचा द्वारा आवेष्टित है और त्वचा साढ़े तीन करोड़ रन्ध्रों से परिपूर्ण है। ऐसी करोड़ों रन्ध्रों अथवा रोमछिद्रों वाली त्वचा का प्रत्याहार किस द्वार को बन्द करके सिद्ध किया जाय? कर्ण, नेत्र, नासिका और जिह्वा-इन चार इन्द्रियों के समस्त द्वारों का समावेश मस्तक के विभाग में हो जाता है, परन्तु त्वचा का विस्तार तो समस्त शरीर में होता है। त्वचा का प्रत्याहार यानी पांचों इन्द्रियों का सामूहिक प्रत्याहार है । उसको सामूहिक प्रत्याहार इसलिए कहा गया है कि जब विषयवासना उत्पन्न होती है तब विषयी स्त्री-पुरुष के मन में पांचों विषयों की लोलुपता एक साथ उत्पन्न होती है। इस प्रयोजन से सबीज समाधि के उच्च कक्षा के साधक आरम्भ में शक्तिचालनमुद्रा का और अन्त में योनिमुद्रा का अवलम्बन लेते हैं। यह प्रत्याहार सिद्धासन पर आरूढ़ होकर किया जाता है। दक्षिण अथवा वाम पाणि द्वारा सीवनी को ० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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