Book Title: Kundalini yoga Ek Vishleshan
Author(s): Kripalvanand
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

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Page 18
________________ Jain Education International समस्त अधिकार प्राप्त कर लेता है । अर्थात् वह परमात्मरूप हो जाता है। इस भूमिका को योगमार्गी असंप्रज्ञात समाधि कहते हैं । उपर्युक्त समस्त योगियों को ऋतम्भरा प्रज्ञा, दिव्यदेह और अपरवैराग्य की प्राप्ति होती है। हाँ, उन सब की अभिव्यक्तियों में अन्तर प्रतीत होता है किन्तु योग प्रक्रिया तो समान ही होती है । योग की इन सभी क्रियाओं अर्थात् प्रारम्भिक साधना से लेकर कुण्डलिनी जागरण और सबीज-निर्बीज समाधि तथा कैवल्य प्राप्ति की संप्राप्ति तक साधारण साधक को अनेक वर्ष लग जाते हैं, किसी-किसी को तो अनेक जन्मों तक साधना करनी पड़ती है। जैनदर्शन की दृष्टि से मोक्ष की साधना महायात्रा कही जाती है, किन्तु कुछ ऐसे साधक भी होते हैं, जो इस महायात्रा को अल्पकाल अर्थात् कुछ ही वर्षों में पूर्ण कर लेते हैं। यह उनके विशिष्ट वीर्य और तन्मयता का परिणाम होता है । कोई-कोई साधक योग्य गुरु की संप्राप्ति के कारण द्रुतगति से इन सब स्थितियों और सोपानों को पार कर जाते हैं और कोई-कोई साधक तो ऐसे विशिष्ट कोटि के होते हैं जो स्वयंबुद्ध होकर स्वयं ही अपना मार्ग तय कर लेते हैं । सत्य तथ्य यह है कि साधना साधक की अपनी निजी लगन, सम्यक् श्रद्धा, सम्यक्ज्ञान और इस ज्ञान द्वारा जाने गये मार्ग पर सम्यक् प्रकार से आचरण पर निर्भर करती है। यदि साधक की श्रद्धा सम्यक् और प्रगाढ़ है, उसका ज्ञान निर्मल और यथार्थग्राही है तो उसका आचरण भी दृढ़तापूर्ण और द्रुतगामी होगा । १८८ श्री पुष्कर मुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड तीनों ही द्वारा हो सकता है। जब ये तीनों के रूप में समन्वित एवं एकाकार हो जाते हैं जैसा कि ऊपर बताया गया है कि कुण्डलिनी जागरण भक्तियोग द्वारा भी हो सकता है, ज्ञानयोग द्वारा भी हो सकता है और निष्काम तथा सकाम योग द्वारा भी हो सकता है और यदि समन्वित रूप से कहा जाय तो इन योगमार्ग सम्यक् श्रद्धा (भक्ति एवं विश्वास ) सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र तो साधक द्रुतगति से अपने इष्ट अर्थात् कैवल्य को प्राप्त कर लेता है । असतो मा सद्गमय । तमसो मा ज्यातिर्गमय । मृत्योर्मा अमृतंगमय । सन्दर्भ तथा सन्दर्भ स्थल १ २ ३ ५ द S १० ११ -गीता २/४७ । समत्वं योग उच्यते । । योगः कर्मसु कौशलम् योगश्चित्तवृत्तिनिरोषः । हेतु द्वयं चित्तस्थ वासना च समीरणः । तयो विनष्टे एकस्मिस्तद् द्वावपि विनश्यतः ॥ १ ॥ - योगकुण्डल्युपनिषद्, प्रथम अध्याय । -गीता अ. ३ । लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघः ! ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् || ३ || आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते । योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥ ३॥ यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः । तदर्थं कर्म कौन्तेय ! मुक्तसङ्गः समाचरः ॥ न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् । कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥ ५ ॥ -गीता अ. ३ । - गीता अ. ३ । (क) नैव किंचित् करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् ||८|| - गीता अ. ५ । (ख) इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ॥ ६ ॥ गीता अ. ५ । - गीता २/५० । योगसूत्र, समाधिपाद सूत्र २ । - गीता अ. ६ । ईश्वरः सर्वभूतानां मेऽर्जुन तिष्ठति । भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ॥ ६१ ॥ गीता अ. १८ । तयोरादौ समीरस्य जयं कुर्यान्नरः सदा || २ || - योगकुण्डल्युपनिषद्, प्रथम अध्याय । योगस्त्रयो मया प्रोक्ता नॄणां श्रेयोविधित्सया । ज्ञानं कर्म च भक्तिश्च नोपायोऽन्योऽस्ति कुत्रचित् ॥ ६ ॥ - श्रीमद्भागवत् स्कन्ध. ११, अ. २० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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