Book Title: Kundalini yoga Ek Vishleshan
Author(s): Kripalvanand
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

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Page 17
________________ कुण्डलिनी योग : एक विश्लेषण १८७ • इस समाधि द्वारा ध्येय स्वरूप का संशय तथा विपर्ययरहित यथार्थबोध होने के कारण उसको सम्प्रज्ञात समाधि व वेतन समाधि कहते हैं। संप्रज्ञात समाधि की चार भूमिकाएँ है-सवितर्क, सविचार, सानन्द और सास्मिता प्राणोत्थान के पश्चात् कुण्डलिनी जाग्रत हो जाती है और उसके जाग्रत होने पर सविर्तक समाधि का आरम्भ होता है । उस अवस्था में साधक का मन ' क्षिप्त' हो जाता है, क्योंकि वह जब-जब साधन के लिए बैठता है तब-तब उस पर कामवासना आरूढ़ हो जाती है। उस भूमिका में यदि साधक को अनुभवी योगी गुरु का समुचित मार्गदर्शन मिलता है तो उसकी साधना अक्षुण्ण रह पाती है, वरन् उसकी प्रगति अवरुद्ध हो जाती है या वह अन्य मार्ग का अवलम्बन ले लेता है । इसी भूमिका में गुरुहीन भावुक साधक योगभ्रष्ट होकर उन्मत हो जाते हैं । सविचार समाधि दूसरा सोपान है। उसमें प्रथम सोपान की क्षिप्तता कुछ अंशों में न्यून हो जाती है किन्तु इसके स्थान पर 'मूढ़ता' का आक्रमण होता है। इस भूमिका में साधक का अधिक समय योगनिद्रा में व्यतीत होता है । सानन्द समाधि तीसरा सोपान है। उसमें रजोगुण और तमोगुण क्षीण होते हैं और सत्वगुण समृद्ध होता है, फलतः शरीर में स्फूर्ति और मन में प्रसन्नता उत्पन्न होती है । सास्मिता समाधि चौथा सोपान है । यह सबीज समाधि की अन्तिम भूमिका है। इसमें केवल 'एकाग्रता' ही होती है। ऋतंभरा प्रज्ञा, अपरवैराग्य, योगातिमय दिव्यदेह की प्राप्ति और निर्बीज समाधि करने की योग्यता वे इसकी सिद्धियाँ है शरीर पंचमहाभूतों से निर्मित हुआ है। योगी योग साधना द्वारा उन पंचमहाभूतों को शुद्ध करता है, उन पर विजय पाता है। तदनंतर उसको अष्ट सिद्धियाँ - अणिमा, लघिमा, महिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, वशित्व, ईशित्व और यत्र कामावसायिता प्राप्त होती हैं । सबीज समाधि में चित्त क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त और एकाग्र—इन चार अवस्थाओं की यात्रा करता है। निर्बीज समाधि में चित्त पाँचवीं निरुद्ध अवस्था में प्रवेश करता है। यह उसकी अंतिम अवस्था है । सबीज समाधि में मन को शरीर से पृथक् किया जाता है। इसमें स्वतंत्र प्राण बहिरिन्द्रियों को अंतर्मुख बनाने की सतत प्रवृत्ति करता रहता है। इस प्रकार कई वर्षों की साधना के पश्चात् इन्द्रियनिग्रह सिद्ध होता हैं। ॐ निर्बीज समाधि में मन को आत्मा से पृथक किया जाता है। हठयोग की सीमा का विस्तार मूलाधारचक्र से लेकर विशुद्धच पर्यन्त है। राजयोग की सीमा का विस्तार आज्ञाचक्र से लेकर सहस्रार पर्यन्त है। यहाँ से मनोनिग्रह का आरम्भ होता है । जो साधक निष्काम कर्मयोग द्वारा सुषुम्णा नाड़ी का मार्ग शुद्ध किये बिना ही ध्यान करता है उसको समाधि की प्राप्ति नहीं होती, वह मूर्च्छित हो जाता है। सबीज समाधि की अपार महत्ता होने पर भी वह निर्बीज समाधि की अपेक्षा सामान्य है। प्राणोत्थान वाले साधक वर्षों पर्यन्त चेतन समाधि का अभ्यास करते रहते हैं । अन्त में वे मान लेते हैं कि यह चेतन समाधि ही अंतिम समाधि है, परन्तु यह उनका भ्रम है । जब प्राण और बिन्दु सुस्थिर हो जाते हैं तब योगी को निर्बीज समाधि प्राप्त होती है। उस अवस्था में योगी शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध को तथा स्वदेह अथवा परदेह को नहीं जानता है । ५ योग का अंतिम परिणाम है कैवल्य । उसमें जीवात्मा स्व-स्वरूप में अवस्थित होता है। उस गुणातीत जीवात्मा को प्रवृत्ति का कोई बन्धन नहीं रहता। कई कर्मयोगी समाधिक्रम को चार अवस्थाओं में विभक्त कर देते हैं—नादयोग, रसानन्दयोग, लययोग और भक्तियोग कई कर्मयोगी समाधिक्रम को नाद की चार अवस्थाओं में विभक्त कर देते हैं- -आरम्भावस्था, घटावस्था, परिचयावस्था और निष्पत्त्यावस्था । ज्ञानयोग के अनुष्ठान द्वारा जीवात्मा स्व-स्वरूप में अवस्थित होता है। उस अवस्था को जीवन्मुक्ति कहते हैं। योग की असंप्रज्ञात समाधि ही ज्ञान की अपरोक्षानुभूति है। भक्ति का अंतिम परिणाम प्रभुप्राप्ति है। यही मुक्ति है। इस मुक्ति की पाँच अवस्थाएँ मानी गयी हैसालोक्य, सामीप्य, सायुज्य, सारूप्य और साष्ट्र्यं । सालोक्यमुक्ति में भक्त सत्संग, कथाश्रवण, कीर्तन, स्मरण इत्यादि करता है । सामीप्यमुक्ति में उसको भगवान् के विविध अवतारों की दिव्य लीलाओं के दर्शन होते हैं। सायुज्यमुक्ति में वह भगवान् का अनन्य भक्त बनता है इस भूमिका को योगमार्गी कुण्डलिनी की जागृति कहते हैं। साहय्यमुक्ति में भक्त भगवान् के सदृश रूप प्राप्त करता है। इस भूमिका को योगमार्गी संप्रज्ञात समाधि कहते हैं । उसमें भक्त को योगाग्निमय विशुद्ध शरीर, ऋतंभरा प्रज्ञा और अपरवैराग्य की उपलब्धि होती है। साष्ट्र्यमुक्ति में वह भगवान् के Jain Education International For Private & Personal Use Only C www.jainelibrary.org

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