Book Title: Kirtikala
Author(s): Hemchandracharya, Munichandrasuri
Publisher: Sha Bhailal Ambalal Petladwala

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Page 9
________________ आगे बढ़ता गया, वैसे ही वैसे मेरी यह धारणा दृढ़तर होती गयी कि इन स्तोत्रोंकी व्याख्याका व्यवस्थित तथा विशुद्धदृष्टिसे नवीन प्रयास जितना स्वागतार्ह है, उतनाहीं आवश्यक तथा अनिवार्य भी है। जिसके परिणामरूपमें मैंने अपने प. पू. गुरुदेवसे इसके लिये प्रार्थना की थी। तथा गुरुदेव श्रीने सहर्ष तथा सोत्साह मेरे विचार का समर्थन तथा अनुमोदन ही किये, तथा इस कार्य में तत्परता से प्रवृत्त भी होगये। जिसके फलस्वरूप प्रथम अयोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका तथा अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिकाका कीर्तिकला नामकी संस्कृतव्याख्या तथा संस्कृतानभिज्ञ जनताको दृष्टिमें रखकर कीर्तिकलानामक हिन्दीभाषानुवादके साथ द्वात्रिंशिकाद्वयीके नामसे प्रकाशन हो चुका है । तथा सम्प्रति श्रीवीतरागस्तोत्र भी कीर्तिकलानामक संस्कृतव्याख्यासहित प्रकाशित हुआ है । तथा अचिर भविष्यमें ही श्रीवीतरागस्तोत्र हिन्दीभाषानुवाद सहित, वीतरागमहादेवस्तोत्र तथा सकलार्हस्तोत्र भी कीर्तिकलानामक संस्कृतव्याख्या सहित तथा हिन्दीभाषानुवाद सहित प्रकाशित होंगे ऐसी आशा है । इस नवीन प्रयासमें क्या नवीनता है ? यह प्रश्न वाचकोंका स्वाभाविक ही है। किन्तु इस विषयमें मैं कुछ कहूं, इससे अच्छा यह है कि वाचक स्वयं अन्य संस्कृत व्याख्या, हिन्दी तथा गुजराती अनुवादोंको भी साथमें लेकर इन स्तोत्रोंका कीर्तिकला टीका सहित तुलनात्मक तथा समालोचनात्मक अध्ययन करें । इस Jain Education International 2010_Bor Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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