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- इसलिये कीर्तिकला सहित द्वात्रिंशिकाद्वयीके प्रकाशनके वाद शीघ्र ही कीर्तिकला सहित श्रीवीतरागस्तवके प्रकाशनका सुयोग पाकर मैं अवर्णनीय आनन्दका अनुभव कर रहा हूँ।
। सम्प्रति श्रीवीतरागस्तव, कीर्तिकलासंस्कृतव्याख्या सहितका ही प्रकाशन सम्भव हो सका है। बहुत शीघ्र ही कीर्तिकला हिन्दीभाषानुवाद सहित श्रीवीतरागस्तवका पृथक् प्रकाशन सम्भव होगा ऐसी आशा है। तथा कीर्तिकला संस्कृतव्याख्या तथा हिन्दी भाषानुवाद सहित अन्य स्तोत्रोंके प्रकाशनका भी प्रयत्न हो रहा है । . प्रस्तुत पुस्तकका प्रकाशन रूप पुण्यकार्य जिन महानुभावोंकी उदार सहायतासे सम्पन्न हो सका है, यहां उनका कुछ परिचय देना मेरे लिये उचित है। उन महानुभावोंमें एक श्रीरवि भाई हैं। जिनके पिताका नाम लवजीभाई गोरधनभाई तथा माताका नाम जडाव बेन है । लवजीभाई एक पुण्यात्मा जीव थे। उनके जीवनमें अनेक शुभ कार्य हुए थे। जिनमें गान्धीनगरके मन्दिरका कार्य विशेष उल्लेखनीय है। उक्त मन्दिरके निर्माण कार्यमें तथा उसके सम्पूर्ण होनेमें आपका आत्मभोग प्रशंसनीय था। तथा अंजनशलाकाप्रतिष्ठाके अवसर पर जो कटोकटी उपस्थित हुई थी, उसका निराकरण आपके बुद्धिबलसे ही सम्भव हो सका था। दृढतापूर्वक ऐसा कहा जाता है कि-आप जैसे कार्यदक्ष व्यक्तिके अभावमें उक्त कार्यके सुचारु रूपसे सम्पन्न होनेमें सन्देह था । अन्तमें आप देवाराधन करते हुए समाधिपूर्वक इस नश्वर शरीरको त्याग कर स्वर्गस्थ हुए। उनके पश्चात् श्रीरवि भाई ‘आत्मा वै जायते
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