Book Title: Kavi Kankan Chihal punarmulyankan
Author(s): Krushna Narayan Prasad
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 6
________________ अश्रुपूरित नेत्रोंवाली छीपीन (दर्जी की पत्नी) ने बताया कि मेरे हृदय की पीड़ा को कोई नहीं जानता। मेरे तन २९ । को विरह रूपी दर्जी दुःख रूपी कतरनी (कैची) से दिनानुदिन काटता चला जाता है। पूरा ब्योंत भी नहीं लेता (दोहा ३२) । आगे वह कहती है : दुःख का धागा बीटिया, सार सुई कर लेइ। चीनजि बन्धइ काय करि, नह नह बखिया देइ ॥३३। बिरह रंगार रंगहीं, देइ मजीठ सुरंग । रस लीयो अवैटाय करि, वा कस कीयो अंग ॥३४।। यद्यपि विरह ने छीपीन के सुख को नष्ट कर दुःख का संचार कर दिया है, तथापि उससे एक उपकार भी हो गया है कि विरह-ताप से उसके शरीर के जल कर क्षार हो जाने से अब वह दुखों से मुक्ति पा गयी है (दोहा ३६)। कलालिन ने अपने दुख का वर्णन करते हुए बताया कि प्रियतम ने मेरे शरीर को विरह-भाठी पर चढ़ा कर अकं बना डाला है : मो तन भाठी ज्यु तपइ, नयन चुवइ मदधार। बिनही अवगुन मुजन सू, कस करि रहा भ्रतार ॥३६॥ इस बिरहा के कारणे, बहुत बार कीव । चित कू चेत न बाहुरइ, गयउ पिया ले जीव ॥४॥ हियरा भीतर हउँ जलउँ, करउँ घमेरो सोस । बहरी हवा वल्लहा, विरह किसा सू दोस ।।४२॥ कलालिन की देह पर मदमाते यौवन की फाग-ऋतु छिटक आयी है, किन्तु प्रियतम दूर है, वह फाग किसके साथ खेले ? ऐसी स्थिति में उसे केवल 'विसूरि-विसूरि' कर मरना ही शेष रह गया है (दो० ४२)। पांचवी विरहिणी सोनारिन ने बताया : मैं विरह-सागर में ऐसी डूब रही है कि थाह भी नहीं पाती। मेरे प्राणों को मदनसोनार ने हृदय-अंगीठी पर जला-जला कर कोयला बना दिया है-मेरा 'सुहाग' (सुहागा; सौभाग्य) ही गल गया है। विरह ने मेरा सप' (रूपा; सौन्दर्य) और 'सोन' ( स्वर्ण ; सोना=नींद) दोनों चुरा लिये ; प्रियतम घर में है नहीं, अत: रक्षार्थ मैं किसकी पुकार लगा। मेरे शरीर के काटे (तुला) पर तौलने से, पता नहीं, प्रियतम को क्या सुख मिला है (दोहा ४५-४६)। कवि ने पाँचों विरहिणियों की विरह-व्यथा को सहानुभूतिपूर्वक सुना और उन्हें सांत्वना दे वह वहां से चला गया। कुछ दिन पश्चात् वह उस नगर में पुनः आया। उस समय वर्षा ऋतु थी, आकाश मेघाच्छादित था, बिजली लुका-छिपी कर रही थी। धरती पर सर्वत्र हरीतिमा थी । वह उस स्थान विशेष पर गया जहां पहले पांचों विरहिणियों से मिला था। संयोगवश इस बार भी वे पांचों वहाँ उपस्थित थीं। इस बार पूरा शमा ही बदला हुआ था। उनका मुख-मण्डल प्रसन्न था । वे सजी-धजी, आनन्दमग्न हो मल्हार गा रही थीं, तरह-तरह की क्रीड़ा कर रही थीं। उन्हें देखते ही छीहल ने उनसे पूछा । मै तुमि भामिनी बुक्मिणी, देखी थी उणि बार । अबहीं देख हँसमुखी, मो सूकहउ विचार ॥५५।। परिवत्तित स्थिति इसकी सूचक थी कि उनके दिन अब सुखपूर्वक बीत रहे हैं । कवि के पूछने पर उन्होंने बताया : गयउ वसन्त वियोग में, ग्रीषम काला मास। पावस ऋतु पिय आवियउ, पूजी मन की आस ॥५७।। आगे प्रत्येक ने अपने-अपने सुखमय जीवन का एक-एक दोहे में कथन किया है। रचना समाप्त करने के पूर्व कवि ने उपसंहार स्वरूप मंगल-कामना की है : आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अम्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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