Book Title: Kavi Kankan Chihal punarmulyankan
Author(s): Krushna Narayan Prasad
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 5
________________ कुछ अध्येताओं ने इनके अतिरिक्त तीन अन्य रचनाओं-(१) रे मन गीत, (२) जग सपना गीत, और (३) फुटकर गीत, की भी सूचनाएं दी हैं। हमारे देखने में ये रचनाएं नहीं आई हैं। सम्भवतः प्रथम दोनों रचनाए क्रमश: 'पन्थी-गीत' और 'पंचेन्द्रिय वेलि' के ही भिन्न नाम हैं। जो भी हो, किन्तु बहरहाल ये सूच्य मात्र हैं। आगामी पक्तियों में प्रत्येक रचना पर आवश्यक विचार किया जाता है। घ/१ पंच-सहेली __ रचना-क्रम की दृष्टि से 'पंच-सहेली' छोहल की कदाचित् प्रथम रचना है। यह कुल अड़सठ दोहों में पूर्ण हुई है । अन्तिम दोहे में रचनाकाल उल्लिखित है जिससे विदित होता है कि विक्रमाब्द १५७५ की फाल्गुण-पूर्णिमा को कवि ने इसे पूर्ण किया था (द्रष्टव्य:पूर्व उद्धृत दोहा)। दो पाण्डुलिपियों में प्राप्त पाठ-भेद से इसका रचना-वर्ष १५७४ विक्रमाब्द भी माना जा सकता है । यथा क. सम्वत पनरह चहूत्तरइ आमेर शास्त्र भण्डार, जयपुर की प्रति । ख. सम्बत पनरह चहुतरह - अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर की प्रति । प्रस्तुत लेखक ने 'पनरह सइ पचहत्तरउ' (अधिकांश प्रतियों के पाठ) के आधार पर ही रचना-वर्ष १५७५ विक्रमाब्द स्वीकार किया है। पंच-सहेली' को कथा अथवा घटना का केन्द्र चंदेरी नामक नगर है। चंदेरी बड़ा सुहावना नगर है। शोभा में वह साक्षात् सुरलोक है। वहाँ स्थान-स्थान पर मन्दिर बने हैं । मन्दिरों के कंगरे स्वर्णजटित हैं । वहाँ स्थान-स्थान पर निर्मल जल से परिपूर्ण कए, बावड़ी और तालाब हैं जिनकी सीढियाँ स्फटिक निर्मित हैं । वहाँ के निवासी गुणज्ञ, विद्वान्, रसिक और चारों पुरुषार्थों से सम्पन्न हैं। उनका जीवन आनन्द और मोदपूर्ण है । नारियाँ रूप-गुण सम्पन्न हैं; वे साक्षात् रम्भा के समान हैं। वसन्त ऋतु आ गयी है। नारियां वस्त्राभूषण से सज्जित हो, मुह में पान-बीटक रख, थाल में चोवा-चन्दन और सुगन्धित पुष्प ले वसन्त खेलती हैं। कोई मधुर स्वर में वसन्त गाती है, कोई रास दिखाती है, कोई हिण्डोले को पेंग देती है। वे विविध प्रकार से हास विलास करती हैं, किन्तु उनमें पाँच सहेलियाँ-मालिन, तम्बोलिन, छीपीन, कलालिन और सोनारिन एकदम अलग-थलग गुम-सुम बैठी हैं । वे न हँसती हैं, न गाती हैं। उन्होंने शृगार प्रसाधन भी नहीं किया है । उनके केश रुक्ष हैं और वस्त्र मलिन । वे दुखित हैं, रहरह कर बिलख उठती हैं, लम्बी साँसें लेती हैं। उसी रास्ते से गुजरता हुआ कवि छीहल जब उनके कुम्हलाए मुखड़े और शुष्क अधरों को देखता है, तो सहानुभूतिवश वह उनके निकट जाता है और उनके दुःख का कारण पूछता है। कवि द्वारा पूछे जाने पर उन पाँचों ने अपने-अपने परिचय तो दिये ही, दुःख का कारण भी बताया। मालिन, तम्बोलिन, छीपीन, कलालिन और सोनारिन-ये भोली ग्रामबालाएं अपनी-अपनी मार्मिक व्यथा अपने जीवन की सुपरिचित एवं घरेलू वस्तुओं एवं उनके प्रति आन्तरिक लगाव के माध्यम से प्रकट करती हैं। सर्वप्रथम मालिन अपनी पीड़ा का वर्णन करते हुए कहती है : मेरा कान्त मुझे भरे यौवन में छोड़ कर अन्य देश चला गया है। विरह-माली ने मेरी हृदय-क्यारी को दुःख-जल से आपूरित कर रखा है। मेरा कमल-बदन मुरझा गया है और वनराजि-सा शरीर सूख गया है। प्रियतम के बिना मुझे एक-एक क्षण एक-एक वर्ष के बराबर लगता है । तन-तरुवर पर यौवन-रस से पूर्ण जो स्तन-सन्तरे (नारंगी) लगे, वे अब सूखने लगे हैं। इन्हें सींचने वाला अब भी दूर जो है । शारीर-वाटिका में मेरा मन-प्रसून प्रस्फुटित तो हआ, पर उसका सुवास लेने वाला प्रियतम है नहीं; अत: मुझे रात-दिन पीड़ित करते हैं। चम्पे की कलियों से मैंने एक हार गूथा, किन्तु प्रियतम के अभाव में पहनने पर यह अंगों को अंगार-सा प्रतीत होता है (दोहा १७-२२) । तम्बोलिन ने बताया क जबसे प्रियतम बिछड़ गया है, तब से मेरे सारे सुख समाप्त हो गये हैं । विरह मेरी चोली के भीतर प्रविष्ट हो मुझे जला रहा है । मेरा मन सदा तड़पता रहता है, नेत्र निर्झर बने रहते हैं । शरीर-वृक्ष के पत्ते झुलस गये हैं और देह-लता कुम्हला गयी है। वसन्त की ये रातें मेरे लिए दुवल हो गयी हैं, काटे नहीं कटतीं । और ये संतप्त दिन, छाया-प्रदायक प्रियतम के अभाव में और अधिक जलाते हैं। विरहाग्नि हृदय में प्रविष्ट हो गयी है, प्रियतम-पानी के अभाव में बुझती नहीं, धू-धू कर जलाती रहती है। हे चतुर ! दुःख का वर्णन करूँ तो कैसे, कुछ कहा भी तो नहीं जाता (दोहा २४-२६) । जैन साहित्यानुशीलन १६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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