Book Title: Kavi Kankan Chihal punarmulyankan
Author(s): Krushna Narayan Prasad
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
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तुलसीदास की ' विनय पत्रिका' के कतिपय विनयगीतों का स्मरण कराते हैं । वेलि के इन गीतों में कुण्डलिया छन्द प्रयुक्त हुआ है । कहींकहीं लोकप्रचलित रूपक और दृष्टान्त भी रखे गये हैं। निश्चय ही वेलि के ये गीत श्रेष्ठ भक्तिगीत हैं ।
घ / ६. आत्म प्रतिबोध जयमाल
'आत्म प्रतिबोध जयमाल' हिन्दी की नहीं, अपभ्रंश की रचना है । शब्द रूपों और क्रिया पदों में 'काफी सरसता' के कारण डॉ० बासुदेव सिंह इसे पुरानी हिन्दी की रचना मानना चाहते हैं। सरसता तो कालिदास इत्यादि अनेक संस्कृत कवियों की रचनाओं में भी है, तो क्या इस आधार मात्र पर उनकी रचनाएँ हिन्दी को मानी जायेंगी ? कहना नहीं होगा कि डॉ० वासुदेव सिंह का तर्क लचर है एवं अपभ्रंश को हिन्दी कहना अनावश्यक मोह का परिचायक है।
'आत्म प्रतिवोध जयमाल' में कुल तंतोस कड़वक हैं। आरम्भिक कड़क में कवि छोहन ने अरिहन्तों, निर्ग्रन्थों, केवलियों और सिद्धों की वन्दना की है
नाम से ही स्पष्ट है कि इस पुस्तक का प्रतिपाद्य विषय आत्मा का प्रतिबोधन सम्बोधन और उपदेश है । इसमें आत्मा के स्वरूप पर कवि ने विस्तारपूर्वक विचार किया है। यहां कवि का मन आत्मा और परमात्मा के चिन्तन एवं कतिपय विधि - निषेधों के निरूपण में खूब रमा है । आत्मग्लानि से प्लावित हो कवि पश्चाताप करता है कि वह विषयों में आसक्त होकर पुत्र कलत्र के मिथ्यामोह में फँस कर भव-वन में भटकता रह गया और सत्य का सन्धान नहीं कर सका। इसी कारण वह आत्मज्ञान से भी वंचित रह
गया :
१.
पणविधि भरहन्त गुरु विरगन्य, केवलणाण अनन्तगुणी । सिहं पणवेपि करम उप्पिण सोहं सासय परम मुणो ॥ १॥
कवि ने स्वीकार किया है कि विषय-वासनाओं में लिप्त हो वह आत्मस्वरूप को भूल गया है। आत्मा का स्वरूप तो समस्त पौद्गलिक पदार्थों से भिन्न है । इसीलिए उसने आत्मस्वरूप का विस्तृत निरूपण किया है। उसका निरूपण मुख्यतः यही है कि "मैं दर्शन-ज्ञान चरित्र हूँ, देह-प्रामाण्य हूँ, मैं ही परमानन्द में विलास करने वाला ज्ञान-सरोवर का परम हंस हूँ। मैं चैतन्यलक्षण ज्ञान-पिण्ड हूँ, मैं परम निरंजन गुण-पिण्ड हूँ, मैं सहजानन्द स्वरूप सिन्धु हूँ, मैं ही शुद्ध स्वभाव [ शिव ] और अखण्ड बुद्ध हूँ। मैं क्रोध और लोभ से रहित वीतराग हूँ, मैं केवल ज्ञान और अखण्ड रूप हूँ। मैं ही परम ज्योति स्वरूप हूँ। मैं ही चौबीस तीर्थंकर, नव हलधर और कामदेव हूँ ।" यथा
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भवन हिडन्त विश्वास हामी किन्पि ण जाणिव । लोहावल सत पुत कललाई मों मंचि अप्पाणउ || ६ ||
जीव जब आत्मस्वरूप को विस्मृत कर देता है तभी वह नाना प्रकार के कष्टों को भोगता है। इसीलिए कवि जिनवर की भक्ति करने के लिए अपने मन को विभिन्न कड़वकों में प्रबोधित करता है । आत्मप्रबोधन ही पुस्तक का मूल प्रतिपाद्य है । पुस्तक की समाप्ति भी अरिहन्तों इत्यादि के स्तवन से ही हुई है । यथा
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हवं दंसण णाम चरित सुद्ध हरं देह पमाणिषु गुण समिद्ध
ह परमानन्द अखण्ड देसु, हउं णाण सरोवर परम हंस ||२||
हउं चेयण लक्खण णाण पिण्डु, हउं परम निरंजण गुण पयण्डु । हउं सहजानन्द सरूव सिन्धु, हउं सुद्ध सहाव अखण्ड बुद्धु ||३| कोह लोह गय बीधराय
हर निक्ल हवं पुणु मिल्कसाथ, हउ ह केवलणाण अखण्ड रूव, हउं परम जोयि जोई सरून ॥४॥ हरयणत्तय चविह जिणन्द, हउं बारह चक्केसर गरिन्दु ।
हउं णव पडिहर णव बासुदेव, हउं णव हलधर पुणु कामदेव ||५||
अपभ्रंश और हिन्दी में जैन रहस्यवाद, पृष्ठ-६८.
आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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