Book Title: Kavi Kankan Chihal punarmulyankan
Author(s): Krushna Narayan Prasad
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
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________________ क. पौराणिक उदर उदधि में/दस मासहि रह्यो। पिण्ड अधोमुखि बहु संकटि पड़यो / / स.हरिगीतिका मन रम्यौ पर धन देखि परतिय चित्त ठौर न राखियो / छण्डिय अमीफल सेव जिण की विषय विषफल चाखियो। ग. रस-उल्लाल पछताइयो जब सुधि नाही/श्रवण सबद ना बूझए / जीवन कारण करइ लालच/नयन मग्ग ना सूझए / घ. शुभगीता बहु सह्यो संकटि उदर अन्तरि चिन्तवै चिन्ता घणी। उबरौं अबकी बार ज्योंहि/भगति जिण करिहों तणी / / अलंकार प्रयोग की दृष्टि से विचार करने से स्पष्ट होता है कि छोहन को सादश्यमून अलंकार अधिक प्रिय है। "पच सहेली' इस दृष्टिसे अधिक महत्त्व की है / उसमें प्रयुक्त उपमान अपेक्षाकृत नवीन और मौलिक सूझ-बूझ के उदाहरण हैं / छोहल की काव्य-भाषा पर अद्यावधि दो प्रकार के विचार आये हैं / सूचना देनेवालों ने छीहल की काव्यभाषा को राजपूतानी पुराने ढरे की (मिश्रबन्धु), 'राजस्थानी मिली भाषा' (आचार्य शुक्ल), 'बोलचाल की राजस्थानी' (डॉ० मेनारिया) इत्यादि कहा है। इसके विपरीत छीहल की रचनाओं के विशिष्ट अध्येताओं के विचार हैं / “पंच-सहेली' और 'बावनी' का भाषिक दृष्टि से अध्ययन करने के उपरान्त डॉ. शिवप्रसाद सिंह इस निष्कर्ष पर आये कि “पंच सहेली" की भाषा राजस्थानी मिश्रित ब्रजभाषा है एवं 'वावनी' की भाषा ब्रज है" / 'हिन्दी बावनी काव्य' में मैंने घोषित किया : "बावनी' की भाषा शुद्ध बजी है। छपय छन्द होने के कारण प्राचीन प्रयोग भी कम नहीं हुए हैं। वर्तनी पर राजस्थानी की छाप दिखती है।" श्री कृष्ण चन्द्र शास्त्री ने 'बावनी' की भाषा को पिंगल' माना है। अन्य रचनाओं की भाषा भी ब्रज ही है। केवल 'आत्म प्रतिबोध जयमाल' की भाषा अपभ्रश है। इतना संकेत कर देना अनावश्यक नहीं कि 'पंच सहेली' के केबल कुछ हस्तलेखों पर ही राजस्थानी की छाप अधिक मिलती है, सब पर नहीं / कई हस्तलिखित प्रतियां राजस्थानी छाप, प्रभाव और मिश्रण से प्रायः मुक्त हैं। वस्तुतः, “पंच सहेली' की भाषा है ब्रज हा, किन्तु कवि की आरम्भिक रचना होने के कारण ही कदाचित् उस पर राजस्थानी का रंग आ अवश्य गया है / कतिपय क्रियापदों तक का राजस्थानी होना भी यही सोचने को विवश करता है। कहना चाहिए कि छीहल की काव्य-भाषा है तत्युगीन स्तरीय हिन्दी ही जो पिंगल और ब्रजी के नाम से अधिक परिचित है। उस पर राजस्थानी के यॉस्कचिन प्रभाव स्थानीय प्रयोग के परिणाम भर माने जायगे। यह प्रवृत्ति केवल छीहल की नहीं, वरन उस युग के अधिसंख्य कवियों में पारी जानेवाली एक सामान्य प्रवृत्ति है। प्रायः सभी कवियों की काव्यभाषा पर क्षेत्रीय या आंचलिक प्रयोग का प्रभाव मिलता ही है। यह दोष नहीं क्षेत्रीय वैशिष्ट्य है / पुन: राजस्थानी प्रभाव भी मुख्यत: वर्तनी तक ही सीमित है। वस्ततः, छीहल की काव्यभाषा सूर-पूर्व हिन्दी की मानक काव्य-भाषा के सर्वथा निकट है, वह सूर-पूर्व हिन्दी यानी ब्रजी है। सुरपर्व ब्रजी की उसमें सारी विशेषताए वर्तमान हैं। जैन मतानुयायी होने के बावजूद छीहल ने रचनाओं में जैनेतर इतिहास पुराण की कथाओं, उक्तियों इत्यादि का नि:संकोच भाव से उपयोग किया है। यह उनकी साम्प्रदायिक सहिष्णुता, पान्थिक उदारता और बहुजता का परिचायक है। अधिकांश वर्णननिरूपण जैन-मतवाद के परिप्रेक्ष्य में किये जाने के कारण रचनाओं में जैन-दर्शन की शब्दावली, जैन-कथाओं और जैन-देवी-देवताओं का इतस्ततः उल्लेख होना सर्वथा स्वाभाविक ही माना जायेगा / यदि 'आत्म प्रतिबोध जयमाल' के अतिरिक्त अन्य रचनाओं पर विचार किया जाये, तो कहना पड़ेगा कि कवि की अपेक्षा वे अधिक उदार और भक्त कवि मात्र रहे हैं। भाव सम्पत्ति को रूपायित करने की मल प्रेरणा कवि को सदा अन्तमन से प्राप्त हुई प्रतीत होती है / उसके समस्त अनुभव वैयक्तिक हैं, जो सार्वजनिक बनने के क्रम में दोबद्ध हो गये हैं। अस्तु, सभी रचनाओं का एकमात्र उद्देश्य आत्मानुभूति की अभिव्यक्ति ही स्वीकार किया जायेगा। समग्रतः कहा जायेगा कि छीहल अपने युग के श्रेष्ठ भक्तकवि हैं। इस दृष्टि से उनकी उपाधि 'कवि कंकण' न केवल उचित है, बल्कि वही उनकी तत्युगीन सर्वजनप्रियता का प्रमाण भी है। 270 आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org