Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Swami Kumar, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 9
________________ VIII Lately, the management of the Rāyacandra Jaina Šāstramālā has changed hands, and it is looked after by Shri RAOJIBHAI Desai of Srimad Rājacandra Aśrama, Agas, who is pushing its publications with keen interest and great zeal. My thanks are due to him for all his kind cooperation, and also to the Trustees of the Aśrama, Agas, who are making worthy efforts for the progress of this Sāstramālā. During the last thirty years, I have uniformly drawn upon the scholarship and goodness of Pt. JUGALKISHORE MUKTHAR, Delhi, and Pt. NATHURAM PREMI, Bombay, throughout my scholastic activities; and if I dedicate this book to them on the eve of my retirement from service, I am only doing, in my humble way, a little of duty which I owe to these great scholars. What pains me most and moves me is that Pt. PREMIJI did not live to see this book published. The Editor acknowledges his indebtedness to the University of Poona for the grant-in-aid given towards the publication of this book. karmanyevádhikārs te Rājārām College, Kolhapur Mahavira Jayanti A. N. Upadhye 9-4-1960 प्रकाशकीय निवेदन ___ (प्रथम संस्करण) श्री स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाकी नवीन आवृत्ति आज इस संस्थाकी ओरसे प्रकाशित हो रही है। इसमें श्रीशुभचन्द्रकी संस्कृत टीका तथा जैन समाजके प्रसिद्ध विद्वान पं. कैलाश चन्द्रजी शास्त्रीका हिन्दी अनुवाद भी दे दिया गया है । इससे इसमें सोनेमें सुगन्ध आगई है। यह आवृत्ति पाठकोंके लिये अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगी। संस्कृत अभ्यासी भी इससे लाभ उठा सकेंगे । अभी तक इसकी कोई संस्कृत टीका प्रकाशमें नहीं आई थी। संस्थाधिकारियोंने इसको प्रकाशित कराके वीतराग वाणीकी अपूर्व सेवा द्वारा पुण्यानुबन्धी पुण्य का संचय किया है। इसके सम्पादन तथा संशोधनमें श्रीमान् डॉक्टर आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्याय, प्रोफेसर, राजाराम कालेज, कोल्हापुर, ने काफी परिश्रम उठाया है। आपने अपनी सर्व शक्ति से इसे सुन्दर तथा रोचक बनानेका जो प्रयत्न किया है उसके लिये यह संस्था सदा आपकी आभारी है। श्री उपाध्यायजी आज विश्वके साहित्यकारोंमें मुख्य माने जाते हैं। आपके द्वारा अनेक ग्रन्थोंका सम्पादन हुआ है, तथा वर्तमानमें हो रहा है। ___ हमें आशा है कि भविष्यमें भी आप इस ग्रन्थमालाको अपनी ही समझकर सेवामें सहयोग देते रहेंगे। श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, ) निवेदक अगास, वाया आणंद, फाल्गुन शुक्ला पूर्णिमा । रावजीभाई देसाई ता. १३-३-६० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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