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कर्म का सिद्धांत
कर्म का सिद्धांत
को सब समझ में आ गया, और सब कुछ तैयारी है तो मात्र दर्शन, संपूर्ण वीतराग दर्शन हो गये कि मोक्ष हो गया।
प्रश्नकर्ता : मनुष्यों की इच्छा दो तरह की हो सकती है, एक आध्यात्मिक और दूसरी आधिभौतिक। आध्यात्मिक प्राप्त होने के बाद अगर आधिभौतिक वासनाएँ कुछ रह गई हो, तो उसे इसी जन्म में पूरी कर दे तो अगले जन्म का सवाल ही नहीं रहता न?
दादाश्री : नहीं, वो पूरी हुई तो हुई, नहीं तो अगले जन्म में पूरी होती है।
प्रश्नकर्ता : इसी जन्म में पूरी कर ले तो क्या बुरा है?
दादाश्री : वो पूरी हो सके ऐसा ही नहीं है, ऐसे evidence मिले ऐसा नहीं है। उसके लिए fully evidence चाहिए, Hundred percent evidence चाहिए।
प्रश्नकर्ता : अभी आध्यात्मिक तो कर रहे है, मगर उसी के साथ साथ संसार की वासनाएँ भी सब पूरी कर ले तो क्या बुरा है?
दादाश्री : मगर वो पूरी नहीं हो सकती नहीं न! वो पूरी नहीं होती है क्योंकि इधर ऐसा वो time भी नहीं है, Hundred percent evidence मिलता ही नहीं। इसलिए इधर वासना पूरी नहीं होती है और एक-दो अवतार तो बाकी रह जाता है। वो सब वासना, fully satisfaction से पूरी होती है और उसमें फिर वो वासना से ऊब जाता है, तो फिर वो केवल शुद्धात्मा में ही रहता है। वासना तो परी होनी चाहिए। वासना पूरी हुए बिना तो कोई जगह entrance ही नहीं मिलता। इधर से direct मोक्ष नहीं है। एक-दो अवतार है। बहुत अच्छा अवतार है, तब सब वासनाएँ पूरी हो जाती है। इधर सब वासनाएँ पूरी हो जावे ऐसा timing भी नहीं है और क्षेत्र भी नहीं है। इधर सच्चा प्रेमवाला, complete प्रेमवाला आदमी नहीं मिलता है, तो फिर अपनी वासना कैसे पूरी हो जायेगी। इसके लिए एक-दो अवतार बाकी रहते है और शुद्धात्मा
का लक्ष हो गया, बाद में ऐसी पुण्याई बंधती है कि वासना पूरी हो जावे, ऐसी १०० % की पुण्यै बन जाती है।
कर्तापद या आश्रितपद? कर्म तो मनुष्य एक ही करता है, दूसरा कोई कर्म करता ही नहीं है। मनुष्यलोग निराश्रित है इसलिए वो कर्म करता है। दूसरे सब गाय, भेंस, पेड, देवलोग, नर्कवाले सब आश्रित है। वो कोई कर्म करते ही नहीं। क्योंकि वो भगवान के आश्रित है और ये मनुष्यलोग निराश्रित है। भगवान मनुष्य की जिम्मेदारी लेता ही नहीं। दूसरे सब जीवों के लिए भगवान ने जिम्मेदारी ली हुई है।
प्रश्नकर्ता : मनुष्य खुद को पहचान जाये, फिर निराश्रित नहीं है।
दादाश्री : फिर तो भगवान ही हो गया। खुद की पहचान करने के लिए तैयारी किया वहाँ से ही भगवान होने की शरुआत हो गई। वहाँ से अंश भगवान होता है। दो अंश, तीन अंश, ऐसा फिर सर्वांश भी हो जाता है। वो फिर निराश्रित नहीं। वो खुद ही भगवान है। मगर सब मनुष्य लोग निराश्रित है। वो खाने के लिए, पैसे के लिए, मोज करने के लिए भगवान को भजते है। वो सब निराश्रित है।
मनुष्य निराश्रित कैसे है, वह एक बात बताऊँ? एक गाँव का बडा शेठ, एक साधु महाराज और शेठ का कुत्ता, तीनो बहारगांव जाते है। रास्ते में चार डाकू मिले। तो शेठ के मन में गभराट हो गया कि 'मेरे पास दस हजार रुपये है, वह ये लोग ले लेंगे और हमको मारेंगे-पीटेंगे, तो मेरा क्या होगा?' शेठ तो निराश्रित हो गया। साधु महाराज के पास कुछ नहीं था, खाने का बर्तन ही था। मगर इनको विचार आ गया कि ये बर्तन लूट जायेगा तो कोई हरकत नहीं, मगर मुझे मारेगा तो मेरा पाँव तट जाएगा. तो फिर में क्या करूंगा? मेरा क्या होगा? और जो कुत्ता था, वो तो भोंकने लगा। वो डाकू ने एक दफे लकडी से मार दिया तो चिल्लाते चिल्लाते भाग गया, फिर वापस आ गया और भोंकने लगा। उसको मन में विचार नहीं आता है कि मेरा क्या होगा। क्योंकि वो आश्रित है। वो दोनों, शेठ और