Book Title: Karm Vimarsh
Author(s): Bhagvati Muni
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

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Page 4
________________ ५२ ] [ कर्म सिद्धान्त का असर पड़ता है और वह भी अशुद्धि की मात्रा के अनुपात से । ज्यों-ज्यों शुद्धता की मात्रा वृद्धिगत होती है त्यों-त्यों ही बाहरी वातावरण का प्रभाव समाप्त सा होता जाता है । यदि शुद्धि की मात्रा कम होती है तो बाहरी प्रभाव रस पर छा जाता है । विजातीय सम्बन्ध - विचारणा की दृष्टि से आत्मा के साथ सर्वाधिक घनिष्ठ सम्बन्ध कर्म पुद्गलों का है । समीपवर्ती का जो प्रभाव पड़ता है वह दूरवर्ती का नहीं पड़ता । परिस्थिति दूरवर्ती घटना है । वह कर्म की उपेक्षा कर आत्मा को प्रभावित नहीं कर सकती । उसकी पहुँच कर्म संघठना पर्यन्त ही है । उससे कर्म संघठना प्रभावित होती है । फिर उससे आत्मा । जो परिस्थिति कर्म संस्थान को प्रभावित न कर सके उसका आत्मा पर प्रभाव किंचित भी नहीं पड़ता । बाहरी परिस्थितियाँ सामूहिक होती हैं । कर्म को वैयक्तिक परिस्थिति कहा जा सकता है । परिस्थिति : काल, क्षेत्र, स्वभाव, पुरुषार्थ, नियति और कर्म की सहस्थिति का नाम ही परिस्थिति है । एकान्त, काल, क्षेत्र, स्वभाव पुरुषार्थ, नियति और कर्म से ही सब कुछ होता है । यह एकान्त सत्य मिथ्या है। काल, क्षेत्र, स्वभाव, पुरुषार्थ, नियति और कर्म से भी कुछ बनता है यह सापेक्ष दृष्टि सत्य है । वर्तमान की जैन विचार धारा में काल मर्यादा, क्षेत्र मर्यादा, स्वभाव मर्यादा, पुरुषार्थं मर्यादा और नियति मर्यादा का जैसा स्पष्ट विवेक या अनेकान्त दृष्टि है, वैसा कर्म मर्यादा का नहीं रहा । जो कुछ होता है वह कर्म से ही होता है ऐसा घोष साधारण हो गया है । यह एकान्तवाद है जो सत्य से दूर है । आत्म गुण का विकास कर्म से नहीं कर्म विलय से होता है । परिस्थितिवाद के एकान्त प्रग्रह प्रति जैन दृष्टिकोण यह है कि रोग देशकाल की स्थिति से ही पैदा नहीं होता किन्तु देश काल की स्थिति से कर्म की उदीरणा होती है । उत्तेजित कर्म पुद्गल रोग उत्पन्न करते हैं । इस प्रकार की जितनी भी बाहरी परिस्थितियाँ हैं वे सर्व कर्म पुद्गलों में उत्तेजना लाती हैं । उत्तेजित कर्म पुद्गल आत्मा में भिन्न-भिन्न परिवर्तन लाते हैं । परिवर्तन पदार्थ का स्वभाव सिद्ध धर्म है । जब वह संयोग - कृत होता है तब विभाव रूप होता है । दूसरों के संयोग से नहीं होता । उसकी परिणति स्वाभाविक हो जाती है । कर्म की भौतिकता : अन्य दर्शन जहाँ कर्म को संस्कार या वासना रूप मानते हैं वहाँ जैन दर्शन उसे पौद्गलिक भी मानता है । जिस वस्तु का जो गुण होता है वह उसका विघातक नहीं होता । आत्मा का गुण उसके लिये आवरण, पारतन्त्र्य और दुःखों का हेतु कैसे बन सकता है ? कर्म जीवात्मा के आवरण, पारतन्त्र्य और दुःखों का हेतु है । गुणों का विघातक है । अतः वह आत्मा का गुण नहीं हो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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