Book Title: Karm Vimarsh
Author(s): Bhagvati Muni
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

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Page 11
________________ कर्म-विमर्श ] [ ५९ प्रवत्ति से ग्रहण किये जाने वाले पुद्गल स्कन्ध कर्म रूप में परिणित नहीं हो सकते । कर्म योग्य पुद्गल ही आत्मा की सत्-असत् प्रवृत्ति द्वारा गृहीत होकर कर्म बनते हैं। कर्म की प्रथम अवस्था बन्ध है तो अन्तिम अवस्था वेदना है। कर्म की विसम्बन्धी निर्जरा है किन्तु वह कर्म की नहीं अकर्म की है । वेदना कर्म की और निर्जरा अकर्म की। कम्म वेयणा जो कम्म निज्जरा। -भग० ७/३ अतः व्यवहार में कर्म की अन्तिम दशा निर्जरा और निश्चय में वह वेदना मानी गई है। बन्ध और वेदना या निर्जरा के मध्य में भी अनेक अवस्थाएं हैं जो उपर्युक्त बद्धादि हैं। कर्म-क्षय की प्रक्रिया: कर्म क्षय की प्रक्रिया जैन दर्शन में गहराई लिये हुए है। स्थिति का परिपाक होने पर कर्म उदय में आते हैं और झड़ जाते हैं। कर्मों को विशेषरूपेण क्षय करने के लिये विशेष साधना का मार्ग अवलम्बन करना पड़ता है। वह साधना स्वाध्याय, ध्यान, तप आदि मार्ग से होती है। इन मार्गों से सप्तम गुणस्थान पर्यन्त कर्म क्षय विशेष रूप से होते हैं । अष्टम् गुणस्थान के आगे कर्म क्षय की प्रक्रिया परिवर्तित हो जाती है। १. अपूर्व स्थिति ज्ञात, २. अपूर्व रसघात, ३. गुण श्रेणी, ४. गुण संक्रमण, ५. अपूर्व स्थिति बन्ध । सर्व प्रथम आत्मा अपवर्तन करण के माध्यम से कर्मों को अन्तर्मुहर्त में स्थापित कर गुण श्रेणी का निर्माण करती है । स्थापना का यह क्रम उदयकालीन समय को लेकर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त एक उदयात्मक समय का परित्याग कर शेष जितना समय है, उनमें कर्म दलिकों को स्थापित किया जाता है। प्रथम समय में कर्म दलिक बहुत कम होते हैं। दूसरे समय में स्थापित कर्म दलिक उससे असंख्यात गुण अधिक होते हैं। तृतीय- समय में उससे भी असंख्यात गुण अधिक होने से इसे गुण श्रेणी कहा जाता है । गुण संक्रमण अशुभ कर्मों की शुभ में परिणति होती जाती है। स्थापना का क्रम गण श्रेणी की भाँति ही है । अष्टम गुणस्थान से चतुर्दश गुणस्थान पर्यन्त ज्यों-ज्यों आत्मा आगे बढ़ती जाती है त्यों-त्यों समय स्वल्प और कर्मदलिक अधिक मात्रा में क्षय हो जाते हैं । इस समय आत्मा अतीव स्वल्प स्थिति कर्मों का बन्धन करती है जैसा उसने पहले कभी नहीं किया है । अतः इस अवस्था का नाम अपूर्व स्थिति बन्ध कहलाता है। स्थितिघात और रसघात भी इस समय में अपूर्व ही होता है, अतः यह अपूर्व शब्द के साथ संलग्न हो गया। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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