Book Title: Karm Vimarsh
Author(s): Bhagvati Muni
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

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Page 6
________________ ५४ ] [ कर्म सिद्धान्त संसारी आत्मा के प्रत्येक प्रदेश पर अनन्तानन्त कर्म परमाणु चिपके हुये हैं । अग्नि के तपने और घन से पीटने पर सुइयों का समूह एकीभूत हो जाता है । इसी भाँति आत्मा और कर्म का सम्बन्ध संश्लिष्ट है । यह सम्बन्ध जड़ चेतन को एक करने वाला तादात्म्य सम्बन्ध नहीं किन्तु क्षीर-नीर का सम्बन्ध है । अतः श्रात्मा अमूर्त है यह एकान्त नहीं है । कर्म बंध की अपेक्षा से आत्मा कथंचित् मूर्त भी है। कर्म बंध के कारण : कर्म संबंध के अनुकूल आत्मा की परिणति या योग्यता ही बंध का कारण है । भगवान् महावीर से गौतम स्वामी ने पूछा - भगवन् ! क्या जीव कांक्षा मोहनीय कर्म का बन्धन करता है ? भगवान् - गौतम ! हाँ, बन्धन करता है । गौतम – वह किन कारणों से बंधन करता है ? - भगवान् - गौतम ! उसके दो कारण हैं । प्रमाद व योग । गौतम – भगवन् ! प्रमाद किससे उत्पन्न होता है ? भगवान् - योग से । . गौतम - योग किससे उत्पन्न होता है ? भगवान् वीर्य से । गौतम - वीर्य किससे उत्पन्न होता है ? भगवान् - वीर्य शरीर से उत्पन्न होता है । गौतम - शरीर किससे उत्पन्न होता है ? भगवान् — जीव से । अर्थात् जीव शरीर का निर्माता है । क्रियात्मक वीर्य का साधन शरीर है | शरीरधारी जीव ही प्रमाद और योग के द्वारा कर्म (कांक्षा मोह) का बंधन करता है | ‘स्थानांग' सूत्र और 'पन्नवणा' सूत्र में कर्म बंध के क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कारण बताये हैं । गौतम - भगवन् ! जीव कर्म बंध कैसे करता है ? भगवान् ने प्रत्युत्तर में कहा कि गौतम ! ज्ञानावरणीय कर्म के तीव्र उदय से दर्शनावरणीय कर्म का तीव्र उदय होता है । दर्शनावरणीय कर्म के तीव्र उदय से दर्शन मोह का उदय होता है । दर्शन मोह के तीव्र उदय से मिथ्यात्व का उदय होता है और मिथ्यात्व के उदय से जीव आठ प्रकार के कर्मों का बंधन करता है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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