Book Title: Karm Vimarsh
Author(s): Bhagvati Muni
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

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Page 7
________________ कर्म-विमर्श ] [ ५५ 'स्थानांग सूत्र' ४१८, समवायांग ५ एवं उमा स्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र में कर्म बंध के पाँच कारण निर्देशित किये हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय एवं योग । यथामिथ्यादर्शनाविरति प्रमाद कषाय योगा बंध हेतवः । -तत्त्वार्थ ८/१ कषाय और योग के समवाय संबंध से कर्मों का बंध होता है"जोग बन्धे कषाय बन्धे"। -समवायांग कर्म बन्ध के चार भेद हैं। कर्म की चार प्रक्रियाएं हैं-१. प्रकृति बन्ध, २. स्थिति बन्ध, ३. अनुभाग बन्ध और ४. प्रदेश बन्ध । ग्रहण के समय कर्म पुद्गल एकरूप होते हैं किन्तु बंध काल में आत्मा का ज्ञान, दर्शन आदि भिन्न-भिन्न गुणों को अवरुद्ध करने का भिन्न-भिन्न स्वभाव हो जाना प्रकृति बंध है। उनमें काल का निर्णय स्थिति बंध है। आत्म परिणामों की तीव्रता और मंदता के अनुरूप कर्म बंध में तीव्र और मंदरस का होना अनुभाग बंध है। कर्म पुद्गलों की संख्या निरिणति या आत्मा और कर्म का एकीभाव प्रदेशबंध है। कर्म बंध की यह प्रक्रिया मोदक के उदाहरण से प्रदर्शित है। मोदक पित्तनाशक है या कफ वर्धक, यह उसके स्वभाव पर निर्भर है। उसकी कालावधि कितनी है । उसकी मधुरता का तारतम्य रस पर अवलम्बित हैं। मोदक कितने दानों से बना है यह संख्या पर निर्भर करता है । मोदक की यह प्रक्रिया कर्म बंध की सुन्दर प्रक्रिया है। - जोगा पयडिपएसं ठिई अणुभागं कसाय प्रो कुणइ ... कषाय के अभाव में साम्परायिक कर्म का बंध नहीं होता। दसवें गुणस्थान पर्यंत योग और कषाय का उदय रहता है अतः वहाँ तक साम्परायिक बंध होता है। कषाय और योग से होने वाला बंध साम्परायिक कहलाता है। गमनागमन आदि क्रियाओं से जो कर्म बंध होता है, वह ईर्यापथिक कर्म कहलाता है । ईर्यापथिकी कर्म की स्थिति उत्तराध्ययन सूत्रानुसार दो समय की है। राग में माया और लोभ का तथा द्वष में क्रोध और मान का समावेश हो जाता है । राग और द्वेष द्वारा ही अष्ट विध कर्मों का बन्ध होता है। रागद्वेष ही भाव कर्म है । राग व द्वष का मूल मोह है। प्राचार्य हरिभद्र सूरि के शब्दों में Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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